इंकलाब लाना है
मुझे शब्द की गहराइयों मे
जलानी है ज्योत
अब ज्ञान के प्रकाश की
बढ़ रहा तिमिर नित
विद्रोह के स्वरूप में
दिखानी अब राह
उसको एकता के आवेश मे
बँट रही धाराओं में
घट रहा वेग प्रवाह का
होगी बदलनी दिशा,
सोच के बहाव की
खंडित हो रही वेदना
हृदय के ताप की
लज्जित हो रही
अस्मिता भारत के भाल की
विद्धवंशक् सोच मे,
शांति बाधक हो रही
स्वार्थ के सिंहासन पर
नीति घातक हो रही
साध रहे मौन वाचाल,
उद्द्यंड भी हैं वक्ता बने
ज्ञात नहीं दिशा कल की,
वो भी हैं कर्ता बने
होगा झांकना विगत काल
की विकरालता मे
जंग लगी सोच को होगा
बदलना कुशलता मे
आज ही मे कल की भी
नीति अपनानी होगी
विरासत बुद्ध की
अब हमें ही बचानी होगी
रहे भारत प्रबुद्ध यही
उद्देश्य हो हम सभी का
देना हो बलिदान भी
तो ध्येय हो हम सभी का
पनप रहीं कुछ प्रभावशाली
शक्तियाँ भी आज देश में
होगा कुचलना सर उनका,
हों किसी भी भेष में।
गंगा शाह आशुकवि

