हल्द्वानी बीते रविवार 15 दिसम्बर 2024 को कुमाऊँ के प्रवेश द्वार कहे जाने वाले हल्द्वानी नगर में उत्तराखंड की पहली आदिजन दलित राउंड टेबल कॉन्फ्रेंस का आयोजन दमुआडूंगा स्थित अंबेडकर आदर्श विद्यालय में सम्पन्न हुआ। कॉन्फ्रेंस का आयोजन अंतर्राष्ट्रीय ख्याति की अंगेजी पत्रिका ‘द कारवां के अक्तूबर अंक में प्रकाशित खोजी रिपोर्ट “सवणाँकैसी: उत्तराखंड व्हाट इट टेक्स टु बिल्ड एन अपर कास्ट स्टेट (सवर्ण-राजतंत्रः उत्तराखंड में सवर्ण राज्य की उत्पत्ति और दलितों के लिए उसके निहितार्थ) के आलोक में पहाड़ी राज्य में आदिजन दलितों की स्थिति पर गहन मीमांसा हुई। कॉन्फ्रेंस की शुरुआत में वरिष्ठ पत्रकार महेश डोनिया ने अपनी इस रिपोर्ट पर विस्तार से प्रकाश डाला। इस रिपोर्ट में राज्य बनने से पूर्व और राज्य बनने के बाद की महत्वपूर्ण घटनाओं का वर्णन है। उन्हों ने राज्य आंदोलन के दौरान दलितों के प्रति पहाड़ की सवर्ण जतियों के हिंसक और घृणास्पद व्यवहार से लेकर उत्तरकाशी में हुए बगरु और अतोला देवी जैसे लॉहर्षक कांडों की जानकारी दी, जिन्हें अपने जातिमद में चूर पहाड़ी सवर्ण जतियों ने अंजाम दिया था। आंदोलन के दौरान डूंड़ा तहसील के बगरु का सिर मुंडवा कर उसे बाज़ार में घुमाया गया था, तो वहीं पुरोला की अतोला देवी को कंताड़ी के ठाकुरों ने मेहनताना मांगने पर पिछले वर्ष मणिपुर में अंजाम दी गई शर्मनाक घटना की तर्ज पर पीटा, उसके कपड़े फाड़ दिए गए और फिर उसके मुंह पर कालिख पोत कर उसे गाँव भर नंगा घुमाया। इस पर भी ठाकुरों का दिल नहीं भरा तो उन्होंने उसके मुंह में मानव-मल ठूंस दिया। नौ मई 1980 के दिन हुए काफ़ल्टा कांड का उल्लेख करते हुए महेश डोनिया ने कहा, “आज भी उत्तराखंड का सवर्ण इस हत्याकांड के लिए पीड़ित पक्ष को ही दोषी ठहराता है। कहता है दलितों को अपने दूल्हे को डोली से उतार देना चाहिए था। मंदिर के आगे तो सभी डोली से उतर के जाते हैं। मैं वहाँ गया। मंदिर गाँव के बाहर आखिरी छोर पर है वह भी आखिरी घर से पचास गज दूर, जबकि गाँव के ठाकुरों ने बलुवा गाँव के अगले छोर ही मचाया था।” उस जघन्य हत्याकांड में कफ़ल्टा के ठाकुरों ने 14 दलित बारातियों की नृशंस हत्या की थी। बारात जाने-माने स्वतंत्रता संग्राम सेनानी स्वर्गीय हरक राम के पोते श्यामा प्रसाद की थी। उत्तराखंड राज्य-आंदोलन के दलित-आरक्षण विरोधी पहलुओं पर चर्चा करते हुए कहा कि दलितों के प्रति नफरत और हिंसा उत्तराखंड की तथा-कथित देवभूमि की संस्कृति का हिस्सा है। उन्होंने टिहरी गढ़वाल के खिरसू गाँव में आज भी मनाए जाने वाली बादी प्रथा का जिक्र किया। इस प्रथा के तहत एक दलित को पहाड़ीकी ऊंची चोटी से बंधी रस्सी पर लकड़ी की तख्ती पर बैठ कर अपने-आपको नीचे खाई की ओर झोंकना होता था। अगर बादी नीच खाई गिरने के बाद बच जाए तो उसे आस-पास खड़े ठुलजात लोग तलवार से काट डालते थे। यह मानव-बली इस लिए दी जाती थी कि देवता प्रसन्न हों ताकि कोई आपदा न आए, राज्य खुशहाल हो, धन -धान्य से भरपूर रहे। आज भी मई-जून के महीने में इस अंधयुगीन-प्रथा को बड़े हर्षोल्लास के साथ मनाया जाता है जहां अब दलित की जगह काठ की मानवकृति का इस्तेमाल होता है। पत्रकार डोनिया ने रिपोर्ट पर प्रकाश डालते हुए बताया कि राज्य बनने के बाद दलितों का उत्पीड़न और उनके खिलाफ की जाने वाली जातिगत हिंसा की बाढ़ सी आ गई है। बलात्कार और हत्या जैसे जघन्य अपराध आम हो गए हैं जिनकी चर्चा उन्होंने अपनी रिपोर्ट में आंकड़ों के साथ विस्तार से की है। उन्होंने बताया कि अब राज्य में है-आठ साल की दलित बच्चियों के साथ बलात्कार हो रहे हैं। एक ओर सवर्ण बिरादरी सजात अपराधियों के बचाव में आ खड़ी होती है तो वहीं पुलिस इन संगीन अपराधों में लिप्त सवर्ण अपराधियों के खिलाफ तत्काल विधि-सम्मत कार्रवाई करने की बात तो दूर रही एफआईआर लिखने की जरूरत महसूस नहीं करती। कई थानों में अपराध-रजिस्टरों को नष्ट कर दिया जाता है। रेगुलर पुलिस राजस्व पुलिस के कार्यक्षेत्रों में होने वाले अपराधों का ब्योरा नहीं रखती। इसीलिए पुलिस महानिदेशक, जिला पुलिस, स्टेट क्राइम रेकॉर्ड ब्यूरो के द्वारा दर्ज की जाने वाली हिंसक घटनाओं के आंकड़ों में भारी अंतर देखने को मिलता है। पुलिस के आंकड़ों और समाज कल्याण निदेशालय के जमीन आसमान का अंतर दिखाई देता है। उन्होंने राज्य में दलितों की भूमि को सवर्णों द्वारा जबरन कब्जाए जाने की वारदातों का भी जिक्र किया। राज्य सरकार द्वारा वर्ष 2005 में प्रकाशित ‘ऐग्रीकल्चरल सेंसस’ (कृषि गणना) रिपोर्ट का हवाला देते हुए डोनिया ने बताया कि राज्य में जहां सवर्ण और अन्य समुदायों की खेती-बाड़ी की जमीन (‘फंक्शनल लैंडहोल्डिंग’) में इजाफा हुआ है वहीं दलितों की जमीन में कमी आ रही है। इस कृषि गणना के अनुसार सिर्फ 13 प्रतिशत दलितों के पास ही मात्र 1.4 एकड़ प्रति परिवार खेती-बाड़ी की जमीन है। ईएस ओकली और एडविन टी एट्किंसन जैसे ब्रिटिश विद्वानों के अध्ययन कार्यों का उल्लेख करते हुए वरिष्ठ पत्रकार डोनिया ने प्रश्न किया कि आखिर क्या कारण है कि जो आदिजन दलित उत्तराखंड की सरजमीं के स्वामी थे वो अपनी ही मातृभूमि में भूमिहीन, अल्पसंख्यक और अछूत कैसे हो गए? उन्होंने उत्तराखंड के ब्राह्मणीय उपनिवेशीकरण के कुछ अद्यतन उदाहरण भी दिए। इनमें एक उदाहरण कर्णप्रयाग मार्ग पर स्थित पोखरी है। यह नगर पास के ही गाँव नखोलिया की जमीन पर बसा है। यह जमीन नखोलिया के दलितों को तत्कालीन ब्रिटिश हुकूमत ने आततायी गुरखाओं को परास्त करने के लिए दी थी। आज वही दलित अपनी ही जमीन में अल्पसंख्यक हो गए हैं और उन्हें अतिक्रमणकारी कहा जा रहा है। अंत में आरक्षण पर चर्चा करते हुए उन्होंने कहा कि काँग्रेस की सरकार ने प्रमोशन में आरक्षण खत्म करने की शुरुआत की तो मौजूदा राज्य सरकार ने पिछले रास्ते से तमाम तरह के आरक्षण सवणों को देकर दलितों को मिलने वाले आरक्षण पूरी तरह से समाप्त कर दिया है। “उत्तराखंड का राजनीतिक-प्रशासनिक ढांचा पूरी तरह से सवणों की गिरफ्त में है और आश्चर्य नहीं कि आने वाले कल में राज्य में दलितों का सम्पूर्ण अस्तित्व खतरे में आ जाए, डोनिया ने चेताया। उत्तराखंड में हुई इस पहली राउंड टेबल कॉन्फ्रेंस को संबोधित करते हुए दलित-आदिवासी संगठनों के राष्ट्रीय महासंघ नैकडोर के अध्यक्ष अशोक भारती ने संक्षेप में अपने और अपने संगठन के बारे में बताया। भारती ने आश्वासन दिया कि उनका संगठन उत्तराखंड के दलितों के साथ है और उनके संवैधानिक अधिकारों की रक्षा के लिए उनके साथ कंधे से कंधा मिलकर चलने के लिए तत्पर है। अंबेडकर मिशन एवं फाउंडेशन के अध्यक्ष जीआर टमटा ने सभा में उपस्थित सभी बुद्धिजीवियों और विभिन्न संगठनों से जुड़े सामाजिक कार्यकर्ताओं और उनके नेतृत्व से आने वाली पीढ़ियों के हित में साथ मिलकर काम करने और लड़ने का आह्वान किया। युवा अधिवक्ता अंजु राज ने सदन को बताया किस तरह पुलिस नई भारतीय न्याय संहिता के तहत अत्याचार संबंधी मामलों में अत्याचार निवारण अधिनियम को ताक पर रख कर काम कर रही है, अपराधियों को गिरफ्तार करने के बजाए उन्हें एक पक्षकार बना कर पेश रही है। कॉन्फ्रेंस में इंजीनियर विनोद आर्य समेत कई नेताओं और सामाजिक कार्यकर्ताओं ने उत्तराखंड में दलितों पर हो रहे अत्याचारों और उनके संवैधानिक अधिकारों पर हो रहे नित नए हमलों चिंता व्यक्त की। रामनगर में कई वर्षों से भूमि आंदोलन की अगुवाई कर रहे रेवी राम ने सुंदरखाल समेत कई वन ग्रामों में 1862 से बसी दलित को उनकी बस्तियों से बेदखन करने की राज्य सरकार की मंशा का पर्दाफाश किया। “एक ओर सरकार भूमि कानून लाने की बात कर रही है दूसरी ओर हमें उजाड़ने पर आमादा है। उत्तराखंड में भूमि कानून नहीं भूमि बंदोबस्त की ज़रूरत है,” उन्होंने कहा। इस दलित राउंड टेबल कॉन्फ्रेंस में बामसेफ, मूलनिवासी संघ समेत कई सामाजिक संगठनों ने भागीदारी की। कॉन्फ्रेंस का आयोजन नैकडोर के आह्वान पर किया गया था। नैकडोर से लगभग 2000 हजार से अधिक दलित-आदिवासी संगठन जुड़े हैं और यह देश के 23 राज्यों में सक्रिय है। तीन घंटे चली इस सभा का संचालन एडवोकेट राजेंदर सिंह कुटियाल और समाजसेवी मुकेश बौद्ध ने बडी कुशलतापूर्वक किया!

 
                         
  
  
  
  
  
 