इन दिनों देश की राजधानी दिल्ली से एक बेहद महत्वपूर्ण तथ्य पर चर्चा छिड़ी हुई है वह है दिल्ली सरकार के कैबिनेट मंत्री राजेंद्र पाल गौतम द्वारा विजयादशमी के दिन डॉक्टर अंबेडकर द्वारा 14 अक्टूबर 1956 को बौद्ध धम्म ग्रहण करते समय ली गई 22 प्रतिज्ञाओं को दोहराने को लेकर। बाबा साहब डॉ अंबेडकर, जिनकी गिनती विश्व के चंद गिने-चुने विद्वानों में की जाती है तथा एशिया महाद्वीप में ऐसे विद्वान वे अपने अपने आप में अकेले हैं उन्हें अपने बाल्यकाल से लेकर जीवन के आखिरी पलों तक भारत में फैली जातिगत असमानता भेदभाव उत्पीड़न व क्रूरता निष्ठुरता मानसिक तनाव व यातना भरा जो जीवन जीना पड़ा, उससे आहत होकर उन्होंने बहुत पहले ही यह संकल्प ले लिया था कि इस असमानता वह अपमानजनक व्यवस्था में पैदा होना उनके बस की बात नहीं थी लेकिन वह इसमें रहकर मरेंगे नहीं।
इस दौरान उन्होंने अपने जीवन का महत्वपूर्ण समय भारत भूमि में फैली जाति व्यवस्था के कारणों को जानने समझने व अध्ययन करने में खर्च किए इसके लिए उन्होंने संस्कृत भाषा सीखी, संस्कृत सीखकर उन्होंने यहां प्रचलित सभी धर्म शास्त्रों का अध्ययन किया जिसके आधार पर वह इस कुव्यवस्था के कारणों तक पहुंचे तथा उन्होंने इसके निवारण का मार्ग खोजा। इतिहास का अवलोकन करने पर उन्हें बुद्ध कालीन व तथागत गौतम बुद्ध के पश्चात का भारत नजर आया जिसमें भारत पूरे विश्व के आकर्षण व अध्ययन का केंद्र बन गया था इसलिए उन्होंने तमाम मत मतांतरो पंथो संप्रदायों के उनका मार्ग अपनाने का अनुरोध अनुनय विनय करने के बावजूद उन्होंने बुद्ध के मार्ग को चुना और बुद्ध के जानो छानो तब मानो के वैज्ञानिक सिद्धांत का अनुसरण किया तथा किसी भी समस्या के पहले कारण को जानने फिर उसके निवारण के मार्ग पर चलने कीबात को आत्मसात किया।
इसी आधार पर उन्होंने 14 अक्टूबर 1956 सम्राट अशोक विजयादशमी के दिन बौद्ध धम्म अंगीकार किया तथा अपने संपूर्ण जीवन के अध्ययन संघर्ष व अनुभव के आधार पर 22 प्रतिज्ञाऐं निर्धारित की और इस दौरान वहां उपस्थित अपने लाखों अनुयायियों के समक्ष उन प्रतिज्ञाओ और संकल्पों को लिया और उनके अनुयायियों ने उन्हें दोहराया।
उसके पश्चात उन्होंने अपने शेष जीवन में इसी कार्य को आगे बढ़ाने का निश्चय किया था जिस पर वह चल पड़े थे किंतु आजीवन दुखों तकलीफों मुसीबतों का सामना करने से उत्पन्न में शारीरिक रुग्णता व अक्षमता के कारण वे 6 दिसंबर 1956 को महापरिनिर्वाण को प्राप्त हो गए, किंतु भारत के शोषितों वंचितो महिलाओं श्रमिकों व हर दुखी पीड़ित अपमानित अत्याचार से ग्रस्त व्यक्ति को मुक्ति व समस्या के समाधान का मार्ग दे गए यही उनके जीवन संघर्षों का निष्कर्ष रूपी संदेश कहा जा सकता है।
अब आज के सामाजिक राजनीतिक दौर में एक ओर डॉक्टर अंबेडकर के अनुयाई होने का उनके नाम पर संगठनों व दलों के निर्माण का तथा घरों व कार्यालयों में उनकी तस्वीरें लगाने की होड़ मची हुई है किंतु वास्तविक धरातल पर यह सभी लोग जो डॉक्टर अंबेडकर को मानने की बात करते हैं वे लोग उनकी बातों को उनकी नसीहतो व उनके संदेशों को कितना मानते हैं यही जांचने वह परखने की आवश्यकता है।
यही दिल्ली के घटनाक्रम से उजागर भी हुआ है कुछ महीने पहले बड़े-बड़े मंचों से डॉक्टर अंबेडकर को देश को पढ़ाने की बात करने वाले मुख्यमंत्री ने अपने कैबिनेट मंत्री का इस्तीफा महज इसलिए स्वीकार कर लिया क्योंकि उन्होंने एक कार्यक्रम में डॉ अंबेडकर द्वारा दी गई 22 प्रतिज्ञाओ को दोहराया था, इसलिए आज स्वयं को डॉक्टर अंबेडकर का अनुयाई समझने और कहने वाले लोगों को अपने अंदर झांकने की जरूरत है कि वह डॉक्टर अंबेडकर के सच्चे अनुयाई हैं या झूठे, क्योंकि सच्चा अनुयाई उनकी बातों उनकी नसीहतों और उनके संदेशों को अपने जीवन में व आचरण में उतारने वाला ही हो सकता है।
एडवोकेट डा प्रमोद कुमार