
आरक्षण
आरक्षण को लेकर देश में समय-समय पर अनेक बदलाव देखने को मिले हैं वास्तव में आरक्षण की आवश्यकता हमारे संविधान निर्माताओं ने स्वतंत्र भारत के संचालन हेतु तैयार किए जा रहे संविधान के निर्माण के समय महसूस की, हालांकि आरक्षण हमारे देश में कोई नई व्यवस्था नहीं है देश के संविधान ने जो मौजूदा आरक्षण या प्रतिनिधित्व प्रदान किया है वह पुराने आरक्षण की व्यवस्था को सुधारते हुए दिया है यदि वास्तव में देखा जाए तो जिसे आज हम आरक्षण कह रहे हैं वह आरक्षण नहीं है बल्कि समाज के सभी वर्गों को उनकी जनसंख्या के अनुपात में प्रतिनिधित्व या हिस्सेदारी है इससे पूर्व जो वर्णवादी व्यवस्था भारत में मौजूद रही वह असली आरक्षण था जो हजारों साल से चला आ रहा था जिसमें जन्मजात आरक्षण की व्यवस्था थी जिसमें कुछ के लिए पढ़ने पढ़ाने व ज्ञान बांटने का आरक्षण था कुछ के लिए लड़ने लड़ाने का आरक्षण था कुछ के लिए कमाने का आरक्षण था और बाकी लोगों के लिए अपना सम्पूर्ण जीवन इन तीनों की खुशहाली के लिए गवाने और समर्पित कर देने का आरक्षण था।
लेकिन वर्तमान व्यवस्था ने इस आरक्षण को समाप्त कर समाज के सभी वर्गों को उनकी जनसंख्या के अनुपात में शासन प्रशासन कुछ हद तक न्यायपालिका में उनकी भागीदारी या हिस्सेदारी या प्रतिनिधित्व सुनिश्चित किया जिस प्रकार एक पिता की संपत्ति में उसके पुत्रों का समान अधिकार होता है उसी प्रकार राष्ट्र के सभी महत्वपूर्ण पदों विभागों में जिनका संचालन शासन द्वारा किया जाता है उनमें सभी वर्गों को न्याय प्रदान करने का प्रयास किया गया।
किंतु हजारों वर्षों से पढ़ने पढ़ाने, लड़ने लड़ाने और कमाने के आरक्षण के सहारे जी रहे लोगों को यह न्याय और भागीदारी की व्यवस्था रास नहीं आई और उन्होंने अपने पढ़ने, लड़ने और कमाने के आरक्षण के सहारे समाज के जिस बहुसंख्यक वर्ग को अपना जीवन भी इनके लिए गंवाने के लिए विवश किया था इस व्यवस्था ने उसके जीवन में भी कुछ संभावनाएं, कुछ उम्मीदें, कुछ राहत, कुछ सुकून, कुछ सुरक्षा, कुछ खुशियां दे दी थी और वह भी जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में अपने परिश्रम व संवैधानिक न्याय व्यवस्था के बल पर आगे बढ़ने लगे थे
किंतु सदियों से इनके श्रम व समर्पण के सहारे बिना कुछ किए ऐश कर रहे लोगों को यह रास नहीं आया और उन्हें लगा कि यदि यह लोग अपना जीवन जीने लगे तो हमारे लिए कौन जिएगा और अगर यह वर्ग स्वावलंबी हो गए, आत्मनिर्भर हो गए और सशक्त हो गए तो हमारी छोटे-बड़े और ऊंच-नीच वाली व्यवस्था ही ध्वस्त हो जाएगी, जिस कारण इन्होंने इस प्रतिनिधित्व की व्यवस्था का विचार आते ही इसका पुरजोर विरोध भी शुरू करना शुरू कर दिया था कुछ ने तो अपनी जान भी इसके विरोध में दांव पर लगा दी थी
तब से आज तक इसका विरोध निरंतर हो रहा है लगातार दलीलें दी जाती हैं कि इस व्यवस्था के कारण योग्यता को नुकसान हो रहा है अयोग्यता को बढ़ावा मिल रहा है लेकिन वही योग्यता की बात करने वाले लोग समाज में सभी वर्गों को हिस्सेदारी के सिद्धांत में तो बुराई खोजने हैं वही स्वतंत्रता सेनानी आरक्षण, विकलांग आरक्षण, भूतपूर्व सैनिक आरक्षण क्षेत्र विशेष के आधार पर मिले आरक्षण, महिला आरक्षण जिसमें उन्हें लाभ मिले उन्हें हासिल करने का कोई प्रयास नहीं छोड़ते, और कई प्रतियोगी परीक्षाओं में बहुत कम नंबर लाने वाले बच्चे भी जब पेमेंट सीटों के सहारे बड़े-बड़े पदों पर आसान आसीन हो रहे हैं वहां उन्हें कोई समस्या नजर नहीं आती।
और हद तो तब हो गई जब आरक्षण की सीमा 50 प्रतिशत से अधिक किसी भी कीमत पर ना होने देने की बात कहने वाला सर्वोच्च न्यायालय 50% पदों पर पहले से ही काबिज लोगों को 10% और देकर 10 से 15 फ़ीसदी लोगों के लिए 60 फ़ीसदी पद सुनिश्चित कर देता है और जहां अन्य तबके ढाई लाख में अमीर मान लिए जाते हैं और इनकी 8 लाख वार्षिक आमदनी वाले को भी निर्धन और दरिद्र घोषित कर सरेआम दोहरे मानदंड अपना लेता है।
एडोकेट डा प्रमोद कुमार,संपादक,”वंचित स्वर”