उत्तराखंड राज्य की कुल आबादी का लगभग 20% यहां का अनुसूचित जाति वर्ग है जो कि ऐतिहासिक दस्तावेजों के आधार पर यहां का मूलनिवासी समाज है और इस वर्ग के अंतर्गत आने वाले समाज का प्रत्येक हिस्सा किसी न किसी निर्माण सृजन की कला से जुड़ी है उत्तराखंड के पर्वतीय भू-भाग के उबड़ खाबड़ पहाड़ों को काटकर खेती योग्य बनाकर इस वर्ग ने सैकड़ों वर्षो से यहां निवासरत मनुष्य का भरण पोषण किया वही दैनिक जरूरत की प्रत्येक वस्तु का निर्माण करने वाला यही वर्ग है तथा यहां रहने वाले लोगों को एक से एक सुंदर भवन बना कर छत प्रदान करने वाला यही समाज है इसके साथ-साथ गीत संगीत गीत लोक संगीत नृत्य आदि का सृजनकर्ता भी यही वर्ग है। किंतु सामाजिक धार्मिक व्यवस्था की विसंगतियों के कारण इन्हें धन धरती और ज्ञान से विमुख रखा गया जिस कारण शिक्षा संपत्ति व उपजाऊ भूमि इनके पास नाम मात्र को भी नहीं है और यह वर्ग इन मूलभूत मानवीय जरूरतों के क्षेत्र में अत्यंत पिछड़ गया विगत 72 वर्षों में भारतीय संविधान के बदौलत इन्हें शिक्षा व शासन प्रशासन में तो प्रतिनिधित्व आंशिक रूप से मिलने लगा किंतु जिन क्षेत्रों में इनका प्रतिनिधित्व सुनिश्चित नहीं हो सका वो क्षेत्र आज भी इनके लिए दिवास्वप्न ही है जिनके प्रमुख उदाहरण न्यायपालिका और मीडिया है न्यायपालिका के निचले पायदान में प्रतिनिधित्व सुनिश्चित होने के कारण इन्हें आंशिक भागीदारी मिली है किंतु वह निचले स्तर से आरंभ होकर जिले स्तर तक आते-आते समाप्त हो जाते हैं तथा राज्य गठन के 22 वर्ष पूर्ण होने के बाद भी राज्य के अत्यंत महत्वपूर्ण इकाई उच्च न्यायालय में यहां के इन वर्गों में से एक भी न्यायधीश नहीं बनाया गया निचली अदालतों से निकले हुए कई न्यायधीश अहर्ता रखने के बावजूद भी उच्च न्यायालय में न्यायाधीश नहीं बनाए गए तथा अधिवक्ताओं के कोटे से बनने वाले न्यायाधीशों में से भी एक व्यक्ति को इस योग्य नहीं समझा गया जबकि इन वर्गों के दर्जनों अधिवक्ता विगत 22 वर्षों से उच्च न्यायालय में वकालत कर रहे हैं। जिसका एक मुख्य कारण यह भी है कि उच्च न्यायालय के न्यायाधीश बनने का प्रोफाइल ज्यादातर शासकीय अधिवक्ता के रूप में कार्य अनुभव से होता हो पाता है किंतु विगत 22 वर्षों में राज्य केंद्र विभिन्न संस्थानों प्रमुख विभागों बैंकों आदि द्वारा मनोनीत अधिवक्ताओं की संख्या 250 से 300 तक होने के बावजूद भी इन वर्गों को वही प्रतिनिधित्वविहीन रखा गया है एक दो अपवाद को छोड़कर जिस कारण उनका प्रोफाइल शशक्त हो ही नहीं पाता और यहां यही बहाना बनाकर उन्हें न्यायाधीश बनने से विरक्त रखा जाता है जब राज्य सरकार व राज्य के अंतर्गत विभिन्न विभागों द्वारा संवैधानिक दायित्वों का पालन करने की निगरानी करने वाली न्यायपालिका में वर्गों का प्रतिनिधित्व ही नहीं होगा तो इन वर्गों जातियों में बटे सामाजिक व्यवस्था में इन वर्गों के लिए न्याय पाना मात्र दिवास्वप्न के अतिरिक्त कुछ नहीं है।। यही स्थिति चौथे स्तंभ मीडिया की भी है क्योंकि मीडिया एक स्वतंत्र क्षेत्र है और मीडिया और संचार के संसाधनों को स्थापित करने के लिए समुचित आर्थिक व बौद्धिक संसाधनों की आवश्यकता होती है जिसमें इन वर्गों के पास अभाव होने खासकर आर्थिक संसाधन के कारण इन वर्गों का लोकतंत्र के चौथे स्तंभ में भी एक दो अपवाद को छोड़कर लगभग शून्यता की स्थिति है जिस कारण इनकी समस्याओं को ना ही समुचित स्वर या आवाज मिल पाती है और उच्च न्यायालय में भी प्रतिनिधित्व विहीन होने के कारण वर्ग एवं जाति संरचना में मजबूती से जकड़े समाज में न्याय पाने की आस भी केवल आस बनकर ही रह जाती है.
एडवोकेट डॉ प्रमोद कुमार