आज वैज्ञानिक अन्वेषणों से लेकर साहित्य,सिनेमा और खेल तक में महिलाओं ने अपनी क़ाबिलियत का लोहा मनवाया है पर भारत में आज भी महिला स्वास्थ्य को गौण ही समझा जाता है।इसपर विचार करते है।विश्व आर्थिक मंच(WEF) द्वारा प्रकाशित रिपोर्ट, जेंडर गैप इंडेक्स सूची 2022 में शामिल 146 देशो में भारत का स्थान 135 है।जेंडर गैप इंडेक्स सूची के कुछ उपसूचकांक (सबइंडेक्स) हैं जैसे; आर्थिक भागीदारी और अवसर,राजनीतिक सशक्तिकरण ,शिक्षा प्राप्ति ,स्वास्थ्य और जीवन रक्षा।इनमें भारत का स्थान क्रमशः143, 48, 107 और146 है। जिसमें,स्वास्थ्य और जीवन रक्षा सबइंडेक्स अत्यधिक चिंता के विषय है,क्योंकि यह सबसे निचले पायदान पर है इसलिए हम इसे दुनिया में भारत का सबसे खराब प्रदर्शन कह सकते हैं। इसका अर्थ यह है कि भारत में पुरुषो की तुलना में स्वास्थ्य और जीवन रक्षा से सम्बंधित मामलो में महिलाओ की अत्यधिक खराब स्थिति है, इसीलिए क्योंकि महिलाएँ खुद से पहले किसी और को रखती हैं, परिवार, बच्चे,पति। या फिर उनको कभी मौका ही नहीं दिया जाता कि वो खुद के लिए सोचे। यह एक शोध का विषय है।
17 सतत विकास लक्ष्यों में से दो लक्ष्य, तीसरा ‘अच्छा स्वास्थ्य और जीवन स्तर’ तथा पांचवा ‘लैंगिक समानता’ है
सहस्राब्दी विकास लक्ष्य (Millennium Development Goals)जिनमे से एक लक्ष्य ‘मातृत्व स्वास्थ्य को बढ़ावा देना भी है’
भारत के सभी नागरिकों के लिए ‘प्रजनन एवं बाल स्वास्थ्य कार्यक्रम” के अंतर्गत स्वस्थ गर्भावस्था, सुरक्षित प्रसव, नवजात शिशु की देखभाल और बच्चों की देखभाल आदि सुविधाए दी जाती हैं, पर क्या यह केवल कहने के लिए है? उत्तराखंड के ग्रामीण इलाकों में रहने वाले लोगों का जीवन बहुत संघर्ष भरा हुआ है,ख़ासतौर पर महिलाओ का, और महिलाऐं सुविधाओं का तो तब उपयोग करेंगे,जब इस बारे में महिलाओ को सही जानकरी होगी।
मैंने एक गांव में सर्वे किया, वहा महिलाओ को प्रसव पूर्व देखभाल और प्रसवोत्तर देखभाल में कोई रुचि नहीं थी और न ही ज्यादा जानकरी थी।ज्यादातर डिलीवरी घर परपारंपरिक रूप तरीके से हुई थी,क्योंकि जानकारी का आभाव था।
मातृत्व स्वास्थ्य को बढ़ावा तभी मिल सकता है असल धरातल में कुछ परिवर्तन हो,प्राथमिक स्वास्थ्य केन्द्रों,और सामुदायिक स्वास्थ्य केन्द्रों में सरकार ने निवेश को बढ़ाना चाहिए,ताकि किसी मरीज या किसी गर्भवती महिला को दूर ना जाना पड़े,सुविधा के आभाव में लोग 100 से 200 किमी दूर जाकर अपना इलाज करवाते हैं।
एक अन्य विषय है माहवारी जो महिलाओं से जुड़ा हुआ एक बहुत गंभीर विषय है।21वीं सदी में भी लोग इसके बारे में अपने घर पर खुल कर बात नहीं करते हैं।इसके विषय में जागरुकता बहुत बहुत जरूरी है क्योंकि माहवारी को लेकर लोगों के मन में बहुत गलत धारणाएं हैं,महिलाओ को अशुद्ध समझा जाता है।
वर्ष 2018 में ऑस्कर से सम्मानित डाक्यूमेंट्री Period:End of sentence का एक दृश्य शायद थोड़ा हास्यप्रद लगे लेकिन ये एक चिंता का विषय है उसमें चार लड़कों से पूछा जाता है कि Periods क्या है, उनमे से दो लड़के जवाब देते हैं हां!जो स्कूल में लगते हैं घंटे ..
और जब माहवारी के बारे में पूछा गया तो, उन्होंने माहवारी को एक बीमारी बताया जो महिलाओं को होती है
जहां,टेलीविजन में सैनिटरी नेपकिन के विज्ञापन आने पर या तो चैनल बदल दिया जाता है,या नज़रअंदाज़ कर दिया जाता है और कभी कोई मां,बाप और बहन इस विषय मैं कभी एक दूसरे से बात नहीं करते हैं..वहां ये होना लाजमी ही है।इसी डाक्यूमेंट्री के एक दृश्य में जब एक सह-स्कूल के कक्षा के बच्चों को माहवारी के बारे में पूछा जाता है तो केवल 1 लड़का अपना हाथ उठाता है।
आज भी उत्तराखंड के कई स्थानो पर मासिक धर्म के दौरान महिलाओ के साथ बहुत तर्कहीन और रूढ़िवादी व्यवहार किया जाता है जैसे, महिलाओ अलग रखना, किसी भी वस्तु को स्पर्श नहीं करने देना और तो और उनको जमीन पर सुलाया जाता है,घर की वस्तु नहीं छू सकते पर जंगल जाकर लकड़िया जरूर लानी है, जिसमें पितृसत्तात्मक दोगलेपन की झलक मिलती है।
वर्ष 2016 में लंदन के एक प्रजनन हेल्थ के प्रोफेसर जॉन गिल एबॉर्ट ने बताया था कि माहवारी के दौरआन महिलाओ को उतनी ही तकलीफ होती है जितनी हार्ट अटैक के दौरान एक इंसान को होती है
बालिकाए भी माहवारी के बारे में बात करने से या तो डरती हैं या संकोच करती हैं,क्योंकि बचपन से ऐसे ही माहौल में रखा जाता है।क्या उन्हें माहवारी होने के कारण के बारे में पता होगा,क्यों होता है ऐसा? शायद नहीं ! उनको कभी इसके बारे में अच्छे से बताया ही नहीं गया होगा।
इस विषय के बारे में स्कूल कॉलेजों में भी बात नहीं की जाती है।
कक्षा 10 में एक अध्याय- जीव जनन कैसे करते हैं?
उसमें मासिक धर्म के बारे में अच्छे से बताया गया है,पर कम ही शिक्षक होंगे जिन्होंने ये अध्याय अच्छे से छात्र-छात्राओं को समझया हो।
स्कूल और कॉलेज में लड़कियों से माहवारी स्वच्छता के बारे में खुलकर बातचीत की जानी चाहिए।जागरूकता बढ़नी चाहिए,ताकी कम से कम वो गलत धारणाओ के शिकार ना हो।
वर्ष 2011 में संयुक्त राष्ट्र बाल कोष (UNICEF) द्वारा किये गए एक अध्ययन से प्रकट हुआ कि भारत में केवल 13% बालिकाओं को पहले मासिक धर्म से गुज़रने के पूर्व से इसके बारे में पता था।
राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वेक्षण के अनुसार 57.6 प्रतिशत भारतीय महिला सैनिटरी पैड का उपयोग करती है जबकि 62 प्रतिशत अभी भी कपड़ा, राख, घास, जूट व अन्य सामग्रियों पर निर्भर हैं। 24 प्रतिशत किशोरियों अपने पीरियड्स के दौरान विद्यालय में अनुपस्थिति दर्ज कराती हैं
WaterAid India और Menstrual Hygiene Alliance India (MHAI) की 2018 की रिपोर्ट बताती है कि भारत में 336 मिलियन मासिक धर्म वाली महिलाएं हैं, जिनमें से केवल 121 मिलियन सैनिटरी पैड का उपयोग करती हैं।
“The doughter never talks to the mother
the wife never talks to the husband
Friends don’t talk to each other’s
Menstruation is biggest taboo in my country” -Arunachalam muruganantham
(इन्होनें कम लागत वाली सैनट्री नेपकिन बनाने वाली मशीन का आविष्कार किया है,जो Period:End of sentence डॉक्यूमेंट्री में दिखाया गया है)
कुल मिलाकर महिला स्वास्थ्य एक गंभीर विषय है, जिस पर सरकारों और समाज के ध्यानाकर्षण की ज़रूरत है।केवल बेटी बचाओ, बेटी पढ़ाओ जैसे स्लोगन केवल दीवारों और काग़ज़ तक में सीमित ना रहें, बल्कि यह धरातल पर एक सफल कार्यक्रम के रूप में दिखाई दे।