कोटद्वार गढ़वाल कुमाऊं और गढ़वाल मात्र दो मंडलों की बुनियाद पर 9 नवंबर 2000 को देश के 27वें राज्य के रूप में उत्तराखंड अस्तित्व में आया, राज्य का लगभग 85 प्रतिशत भू-भाग पर्वतीय है, वर्ष 2000 से पूर्व उत्तराखंड भी उत्तर-प्रदेश का ही एक हिस्सा हुआ करता था। 90 के दशक में उत्तर प्रदेश में मण्डल आयोग की सिफारिश लागू होने के बाद प्रदेशभर में पिछड़ी जातियों के लिए 27 प्रतिशत आरक्षण लागू हुआ, तब 27 प्रतिशत आरक्षण का खूब विरोध इस पर्वतीय भू-भाग में भी हुआ ,और धीरे- धीरे आरक्षण विरोध का ये आंदोलन पृथक राज्य निर्माण आंदोलन में परिवर्तित हो गया, जिसके परिणाम स्वरूप 9 नवंबर 2000 को उत्तराखंड देश के 27वें राज्य के रूप में अस्तित्व में आया, राज्य निर्माण के बाद से ही प्रदेश की सत्ता पर भाजपा कांग्रेस का ही प्रभुत्व रहा है, वर्तमान में भी इन दोनों ही राष्ट्रीय दलों के इर्दगिर्द प्रदेश की राजनीति केंद्रित हैं जिस वजह से कोई भी क्षेत्रीय दल प्रदेश में अपना विस्तार ही नहीं कर पाया, राज्य निर्माण के प्रारंभिक वर्षों में हरिद्वार जनपद में बहुजन समाज पार्टी का खासा प्रभाव रहा, लेकिन समय के साथ हरिद्वार जिले को भी भाजपा-कांग्रेस ने अपने प्रभाव में ले लिया और आज बहुजन समाज पार्टी से मात्र एक विधायक ही प्रदेश की विधानसभा में है। दोनों मंडलों में अगर हम अनुसूचित जाति के प्रभावशाली नेताओं पर नजर दौड़ाएंगे तो हमें कुमाऊं की तुलना में गढ़वाल मंडल में अनुसूचित जाति का कोई भी ऐसा नेता नजर नहीं आता जो सही अर्थों में अनुसूचित जाति का सशक्त नेतृत्व राज्य की राजनीति में कर रहा हो, आजादी से पूर्व एक समय ऐसा भी था जब अनुसूचित जाति में जन्मे क्रांतिकारी समाज सुधारक कर्मवीर जयानंद भारतीय एवं बलदेव सिंह आर्य जैसी विभूतियों ने इसी गढ़वाल मंडल में जन्म लिया और अपने समाज का कुशल नेतृत्व कर अपना गौरवमय इतिहास सृजित किया। वर्तमान में प्रदेश की कुल 13 अनुसूचित जाति आरक्षित विधानसभा सीटों में से 8 सीटें गढ़वाल मण्डल में हैं और शेष 5 विधानसभा सीटें कुमाऊं मंडल में स्थित हैं, लेकिन फिर भी गढ़वाल मंडल में अनुसूचित जाति का कोई भी नेता ऐसा नजर नहीं आता जो प्रदेश की राजनीति में अपना गम्भीर प्रभाव रखता हो। जबकि कुमाऊं मंडल में प्रदीप टम्टा, यशपाल आर्य, अजय टम्टा, रेखा आर्य, सरिता आर्य ये अनुसूचित जाति के उन नेताओं के नाम हैं जो कहीं न कहीं प्रदेश की राजनीति में अपना दखल रखते हैं।
वर्तमान में गढ़वाल मंडल की 8 अनुसूचित जाति आरक्षित विधानसभा सीटों में विधायक
पुरोला से दुर्गेश्वर लाल (भाजपा)
थराली से भोपाल राम टम्टा (भाजपा)
घनसाली से शुक्तलाल शाह (भाजपा)
राजपुर रोड़ से खजान दास (भाजपा)
ज्वालापुर से बरखा रानी (कांग्रेस)
भगवानपुर से ममता राकेश (कांग्रेस)
खबरेड़ा से वीरेंद्र कुमार (कांग्रेस)
पौड़ी से राजकुमार पोरी (भाजपा)
अनुसूचित जाति आरक्षित सीटों से जीतकर अनुसूचित जाति का प्रतिनिधित्व उत्तराखंड विधानसभा में कर रहे हैं, लेकिन व्यवहारिक रूप में देखे तो अनुसूचित जाति के ये 8 माननीय विधायक मात्र अपने दलों तक सीमित रह गए हैं, इन्होंने कभी भी अनुसूचित जाति के प्रभावशाली नेता बनने की कोशिश ही नहीं की, इसलिए इनका प्रदेश की राजनीति में कोई विशेष प्रभाव भी कहीं नजर नहीं आता, अगर संविधान में आरक्षित सीटों का प्रावधान न होता तो ये तय है ये कभी विधानसभा में नहीं होते क्योंकि इनमें समाज के नेतृत्व करने की क्षमता का घोर अभाव है, वहीं देखा गया है कि प्रदेश के मुख्य राष्ट्रीय राजनीति दल भाजपा कांग्रेस भी अनुसूचित जाति आरक्षित सीटों पर उन्हीं लोगों को टिकट देने में वरीयता देते हैं जो उनके व्यक्तिगत मानकों को पूरा करते हैं। गढ़वाल में स्वतंत्रता आंदोलन के समय से ही एक सामान्य अनुसूचित जाति परिवार में जन्मे बलदेव सिंह आर्य ने सबसे पहले स्वतंत्रता संग्राम सेनानी के रूप में देश की आजादी के आंदोलन में अपनी महत्वपूर्ण भूमिका निभाई एवं देश आजाद होने के बाद बलदेव सिंह आर्य एक बड़े राष्ट्रीय राजनेता के रूप में उभरकर सामने आए, आपको 1950- 52 तक गढ़वाल के प्रथम सांसद बनने का गौरव प्राप्त हुआ, आर्य जी 1952 से 1989 तक लगभग तीन दशकों तक उत्तर- प्रदेश सरकार में मंत्री रहे, आर्य एक ऐसे नेता थे जिन्होंने अपनी राजनीति की परवाह किए बिना हमेशा अपने समाज के मुद्दों को प्राथमिकता दी, उन्होंने अनुसूचित जाति (शिल्पकार) समाज के स्वाभिमान के प्रतीक डोला-पालकी जैसे सुप्रसिद्ध आंदोलन का नेतृत्व किया, 1992 में बलदेव सिंह आर्य के निधन के बाद गढ़वाल मंडल में अनुसूचित जाति से कोई भी नेता ऐसा उभर कर नहीं निकला जिसने अनुसूचित जाति के प्रभावशाली नेता के रूप में अपनी पहचान प्रदेश की राजनीति में बनाई हो। लोकतांत्रिक राजनीतिक व्यवस्था में किसी भी वर्ग के लिए एक प्रभावशाली नेतृत्व का होना बहुत आवश्यक है, जिसका गढ़वाल मंडल की राजनीति में बहुत बड़ा अभाव बना हुआ है, जिस वजह से एक ओर अनुसूचित जाति के अधिकारीयों/कर्मचारियों का उत्पीड़न होता है वहीं प्रदेश में जातिय उत्पीड़न की दर्जनों बड़ी- बड़ी घटनाओं के बाद भी अनुसूचित जाति के लोगों को सामाजिक न्याय की लड़ाई के समय उचित एवं प्रभावशाली नेतृत्व के अभाव में न्याय पाने व अपने मान सम्मान की सुरक्षा के लिए जूझना पड़ता है। उत्तराखंड राज्य निर्माण के बाद से ही गढ़वाल क्षेत्र में वंचितों के मुद्दों को रखने वाले नेताओं की बड़ी कमी रही है। कांग्रेस और भाजपा दोनों दलों में अनुसूचित जाति के नेताओं की भरमार है लेकिन वे पार्टी लाईन से बाहर नहीं निकल पाए और पार्टी के भीतर रहकर भी अपने ही वर्ग की बातों को रखने में नाकाम दिखाई पड़ते हैं जिसका एक दुष्परिणाम यह भी है कि वंचित वर्गों के उत्पीड़न की घटनाएं गढ़वाल क्षेत्र में ज्यादा दिखाई पड़ती है जिसमें पौड़ी, टिहरी ही नहीं बल्कि संपूर्ण गढ़वाल अर्थात जौनपुर, जौनसार, बावर, देवघार, बंगाण, पर्वत तक इसका असर है। जबतक समाज की बात नहीं होगी तबतक राजनीतिक प्रतिनिधित्व एक छलावा बनकर रह जाएगा क्योंकि किसी भी पार्टी में नेताओं का होना राजनीतिक आरक्षण का प्रतिबिंब है। यदि कोई नेता उस प्रतिबिंब से दूरी बनाता है तो वह अपने ही वजूद को कमजोर करता है। इसलिएअपने वर्ग की बातों को प्राथमिकता में रखना ही होगा। आज प्रदेश में ऐसे नेतृत्व की आवश्यकता है जो इन वंचित वर्गों को संगठित करके सरकार तथा जनता के बीच का माध्यम बने। हर छोटी–बड़ी बात पर अपना विचार व्यक्त करे और समस्याओं को निस्तारित करने हेतु वचनबद्ध हो। यदि यह राजनीतिक दलों, चुने हुए प्रतिनिधियों के माध्यम से संभव नहीं हो रहा तो अवश्य ही नेतृत्व के नए विकल्प और संकल्प पर विचार करना होगा (आर पी विशाल स्वतंत्र स्तंभकार) वर्तमान में गढ़वाल मंडल में अनुसूचित जाति समाज को ऐसे प्रभावशाली नेतृत्व क्षमता वाले संगठन एवं नेताओं की आवश्यकता है जो अपनी राजनीतिक महत्वाकांक्षा को दरकिनार कर अपने समाज के हित में समाज का नेतृत्व कर सके।
विकास कुमार आर्य
कोटद्वार गढ़वाल
ब्यूरो चीफ वंचित स्वर साप्ताहिक

