हजारों साल की करवट लेने के बाद भारतीय इतिहास ने एक नई करवट 26 जनवरी 1950 को ली, इस व्यवस्था की सबसे बड़ी विशेषता यह थी इस व्यवस्था में पूजा-अर्चना इबादत प्रार्थना उपासना आदि को व्यक्ति का निजी मसला माना गया तथा देश के प्रत्येक नागरिक को अपनी इच्छा अनुसार किसी भी धर्म मजहब पंथ संप्रदाय को मानने की स्वतंत्रता दी गई तथा राज्य को इससे अलग रखा गया तथा इन सबसे ऊपर रखा गया कि राज्य प्रत्येक नागरिक चाहे वह किसी भी पद्धति का अनुसरण करने वाला हो राज्य से अपेक्षा की गई कि वह बिना किसी भेदभाव के प्रत्येक नागरिक के कल्याण के प्रति प्रतिबद्ध होगा और इसी व्यवस्था को विश्व की अब तक की सर्वोत्तम व्यवस्था माना गया है क्योंकि राज्य का मूलभूत उद्देश्य उसके प्रत्येक नागरिक के चहुंमुखी विकास और कल्याण ही होना भी चाहिए।
किंतु भारत भूमि में हजारों साल से कुछ संकीर्ण संकुचित स्वार्थी और स्वयंभू लोगों ने अपने वर्चस्व को स्थापित करने के लिए इस देश की धरती को समय समय पर रक्त रंजित किया है और रक्त रंजित करते ही रहते हैं किंतु उनकी प्यास बुझने का नाम नहीं लेती और इस रक्त रंजित व्यवस्था की स्थापना करने वाले या यहां की सर्व धर्म समभाव या मानव मात्र के कल्याण की विचारधारा को खंडित करने वाले लोगों की सबसे बड़ी खासियत यह है कि वह इस बात को इतने सुनियोजित ढंग से करवाते हैं कि जिसमें उन्हें अपना रक्त नहीं बहाना पड़ता रक्त अनुयायियों का बहता है और उनका सिर्फ कल्याण ही कल्याण होता है और इस कला का उन्हें सिद्धहस्त कहना ही पड़ेगा कि जिनका वह हजारों साल से रक्त बहाते आए हैं जिनके असंख्य पूर्वजों को वह इस आग में झोंकते आए हैं उन्हें मौत के घाट उतारते आए हैं उन्हीं को अपना अनुयाई या अनुसरणकर्ता बनाए रखने में भी वह आज तक सफल रहे हैं तथा यह कहा जा सकता है कि अपने पूर्वजों की हत्याओं पर ही उनकी संतानों से ही जश्न मनाते आ रहे हैं।
जिस समय एक ओर कुछ प्रगतिशील और मानवतावादी लोग स्वतंत्र भारत में समता स्वतंत्रता बंधुत्व न्याय पर आधारित मानवीय भारत के निर्माण की रूपरेखा तैयार कर रहे थे उसी समय से कुछ लोग इस योजना या परिकल्पना को ध्वस्त कर संकुचित स्वार्थी संकीर्ण अमानवीय हिंसक रक्त रंजित भारत के निर्माण की फिर से कार्य योजना तैयार करने में जुट गए थे जिस काम को अंजाम देने के लिए उन्होंने अनेक प्रकार के छद्म आवरणों से स्वयं को ढक रखा था जिससे लोग उनके झांसे में आ सकें और कुछ ताकतें ऐसी थी जो इस छद्म आवरण के पीछे छुपे निकृष्ट चेहरों को जानते पहचानते हुए भी अनजान बनने का नाटक करती रही या कहें कि इन्हें फलने फूलने का मौका देती रही।
जिसका परिणाम यह है कि छद्म आवरण में ढके लोग आज पूरी तरह देश के नीति निर्माता बन चुके हैं और देश का संचालन करने वाली प्रमुख व्यवस्थाओ को अपने शिकंजे में ले चुके हैं। और सरेआम जन कल्याणकारी राज्य की अवधारणा को नष्ट कर रहे हैं सामाजिक और शैक्षणिक रूप से हजारों साल से पिछड़ चुके लोगों को फिर से उसी हाल में पहुंचाने की पूरी व्यवस्था बना चुके हैं राज्य व सरकार को एक ही विचारधारा का राज्य व सरकार बना चुके हैं शेष विचारों और मान्यताओं को सरेआम रौंदने को आतुर हैं या रौंद रहे हैं विभिन्न धर्म और पंथों के नागरिकों की आय से हासिल राजस्व को एक ही विचारधारा के प्रतीकों और आयोजनों में खुलेआम खर्च कर रहे हैं जबकि जिस राजस्व को सभी नागरिकों की शिक्षा स्वास्थ्य और अन्य कल्याणकारी कार्यक्रमों पर खर्च होना चाहिए।
इन परिस्थितियों में समूचा भारत फिर से दोराहे पर खड़ा नजर आ रहा है एक ओर संकीर्ण स्वार्थी संकुचित हिंसक और अमानवीय भारत के निर्माण की कार्य योजना तैयार है दूसरी ओर समता स्वतंत्रता बंधुत्व न्याय पर आधारित मानवतावादी भारत के स्वरूप की रक्षा करने की चुनौती है देखना यह है कि देश का जनमानस किस ओर खड़ा होता है, 75 वर्षों में वह कितना समझदार बन पाया है और अपनी आने वाली पीढ़ियों को वह कौन सा भारत सौंपकर जाने वाला है?
एडवोकेट डॉ प्रमोद कुमार संपादक वंचित स्वर।