
छोलिया
विरासत के इस ठप्पे के पीछे का सच बतलाता हूँ
आओ, मैं तुम्हें इस सच्चाई के कुछ और क़रीब ले जाता हूँ
दमाऊ की जिस थाप पर तुम कुछ क्षण नाचते हो
उस थाप में मैं, उनकी ज़िंदगी भर का नाच दिखलाता हूँ।
आओ, मैं तुम्हें इस सच्चाई के कुछ और क़रीब ले जाता हूँ।
उनकी निर्मल अठखेलियों के पीछे,
उनके हंसते हुए चेहरों के पीछे,
उनकी उस गुजर बसर के पीछे
उनके मजबूर, फीके चेहरों से मिलवाता हूँ
आओ, मैं तुम्हें इस सच्चाई के कुछ और क़रीब ले जाता हूँ।
कांसे की कटार और उस ढाल के पीछे
उन रंगीन रफ़ू की हुई पोशाक के पीछे
फटे हुए जूतों के नीचे उस शूल के पीछे,
उन चेहरों पर दिखती सफ़ेद धूल के पीछे
सभ्यता की पुति हुई कालिख दिखलाता हूँ,
आओ मैं तुम्हें सच्चाई के कुछ और क़रीब ले जाता हूँ।
कला और संस्कृति की झूठी शान के पीछे
हथियारों के करतब और उनकी छलांग के पीछे
उनके चेहरे और उस स्वाँग के पीछे
दो वक़्त की रोटी का, अरमान बतलाता हूँ
आओ, मैं तुम्हें इस सच्चाई के कुछ और क़रीब ले जाता हूँ।
विरासत नही, ये सदियों का दंश है
उनके मन मस्तिष्क पर उकेरी गई जाति का अंश है
वो अंश,जो जन्म लेते ही उनकी पहचान गढ़ गया
वो अंश, जो अब ताउम्र उनकी पहचान बन गया
उस अंश की छाप के पीछे के नासूर दिखलाता हूँ
आओ, मैं तुम्हें इस सच्चाई के कुछ और क़रीब ले जाता हूँ।
आप इसे कमाई का ‘बढ़िया ज़रिया’ बतलाते है!
तो ख़ुद क्यों नहीं ये पेशा अपनाते है?
क्यों न अपनी आने वाली पीढ़ियों को इसके फ़ायदे गिनवाते है!
सच तो ये है, कि साहब आप ही दोगले है!
मैं आपको सच्चाई से वाक़िफ़ करवाता हूँ
आओ, मैं तुम्हें इस सच्चाई के कुछ और क़रीब ले जाता हूँ।
दीपक कुमार अस्टिटेंट प्रोफेसर भौतिक विज्ञान