1 मई को अन्तर्राष्ट्रीय मजदूर दिवस मनाया जाता हैं। मजदूर के हित की बात तो देश-विदेशों के नेतृत्वकर्त्ता करते हैं, लेकिन यह सिर्फ और सिर्फ औपचारिकता पूरी करने तक सीमित है। जबकि मजदूर हितों की वास्तविकताऐं इसके विपरीत है। देश-विदेश में मजूदरों के दम पर बहुत से लोग धन्नासेठ बन गये। परन्तु मजदूर की स्थिति जस की तस बनी हुई है। खासकर भारत में मजदूर की स्थिति दिन-प्रतिदिन खराब होती जा रही है। एक तो काम का अभाव ऊपर से सस्ता श्रम। सस्ते श्रम से मजदूर के शारीरिक तथा मानसिक स्थिति पर भी विपरीत असर पड़ रहा है। जिससे मजदूर का मजदूरी पर ध्यान केंद्रित नहीं हो पा रहा है।
मजदूर दिवस मनाने भर से ही मजदूरों की स्थिति में कोई खासा परिवर्तन आने वाला नहीं। जब मजदूरों की स्थिति में नाम मात्र भी परिवर्तन नहीं आया है तो फिर ऐसे मजदूर दिवस मनाने का कोई महत्व नहीं रहा जाता है। वर्तमान परिपेक्ष्य में जरूरत है सस्ते श्रम के बजाए श्रम को बढ़ावा देने की। श्रमिक के स्तर को ऊँचा उठाने की। देश निर्माण मेें मजदूर अपने श्रम को सौ प्रतिशत उतार देते हैं। देश निर्माण में जितना योगदान अन्य नागरिकों का होता है उतना ही योगदान श्रमिकों का भी होता है। देश निर्माण में सभी अपने योगदान का मूल्य लेते है, किंतु उनमें सबसे न्यूनतम मूल्य पर मजदूर ही अपना योगदान देता हैं।
देश-विदेश के नेतृत्वकर्त्ता एवं देश-विदेश के बहुतेरे संगठनों को जो मानवाधिकारों की बात करते हाें या फिर मानवाधिकार पर काम करते हों उनको श्रमिकों के बेहतरी के बारे में सोचना होगा। उनके भविष्य के लिए चिंतित होना होगा। अनेक पारदर्शी योजनायें राष्ट्रीय व अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर बनाने के साथ ही उन योजनाओं का उतने ही कुशलता के साथ इम्पलीमेंटशन भी करना अनिवार्य होगा। मानवाधिकार पर काम करने वाले राष्ट्रीय एवं अन्तरराष्ट्रीय वॉलिनटियर्सों को श्रमिकों पर विशेष ध्यान देने की आवश्यकता है।
जहाँ विश्व भर में श्रमिकों का शोषण आम बात है वहीं भारत इससे अछूता कैसे रह सकता हैं। ये बात अलग है कि मजदूरों के हित में लड़ते हुये बाबा साहेब डॉ- भीमराव अम्बेडकर ने अंग्रेज शासकों से मजदूरों के 14 घण्टे के काम करने को 08 घण्टे में तबलीय करवाया। लेकिन फिर भी यहाँ श्रमिकों का शोषण कम नहीं हुआ। श्रमिकों में भी खासकर दलित श्रमिकों का शोषण तो अत्यधिक होता हैं। दलित श्रमिक को उसकी अपनी मेहनत, ईमानदारी, काम के प्रति जवाब देही, अपनी लगनशीलता आदि अनेक कारणों से शोषित किया जाता है, और यह प्रक्रिया यथावत जारी है। हालांकि शोषण के खिलाफ श्रमिक लेबर कोर्ट जा सकते है। लेकिन अधिकांशतः श्रमिकों को इसकी जानकारी नहीं होती और जिनको होती भी है तो वे लोग कोर्ट, कचहरी जैसे जगहों पर जाने से हिचकिचाते है। दूसरा उनके पास इतनी पूंजी नहीं होती है कि वे कोर्ट, कचहरी में उन शोषण करने वाले दबंगों का मुकाबला कर सकें। इनकी पूंजी व राजनीतिक पहुँच के आगे श्रमिकों का कोई वजूद नहीं टिक पाता। इसीलिए श्रमिक अपनी लड़ाई लड़ने के बजाए शोषित होने पर विवश होते है।
एक मई को श्रमिक दिवस पर वे लोग भी मजदूर हितों की बात करने लगते है जो सालभर श्रमिकों का शोषण करने में व्यस्त रहते हैं। क्या वास्तव में ऐसे मजदूर दिवस मनाने का कोई महत्व है। क्या सस्ता श्रम व शोषित श्रमिक को मजदूर दिवस में प्रतिभाग करना चाहिए। जब तक मजदूरों व उनके परिवार की शारीरिक, मानसिक, आर्थिक एवं शैक्षिक स्थिति में ज्वलंत परिवर्तन नहीं होते ऐसे दिवसों का कोई महत्व नहीं रह जाता। मजदूर दिवस मनाना अधिक आवश्यक है या मजदूर के हित में काम करना? आप भी सोचें।
एडवोकेट डाॅ प्रमोद कुमार संपादक वंचित स्वर साप्ताहिक अख़बार