
देश के आर्थिक सलाहकार परिषद के अध्यक्ष विवेक देबराय द्वारा 15 अगस्त 2023 को एक अंग्रेजी अखबार (MINT) में डॉ अंबेडकर की अगुयाई में लिखे मैजूदा संविधान को औपनिवेशिक विरासत का हिस्सा बताते हुए भारत के लिए नया संविधान लिखने की जरूरत बताई गयी है. सर्वविदित है विवेक देबराय वाली विचारधारा के लोगों द्वारा संविधान बदलने की बात कहना कोई नई बात नहीं हैं. इस विचारधारा के लोग आए दिन देश के संविधान को लेकर तरह-तरह के प्रश्न खड़ा करते हुए आरंभ से ही इसका विरोध करते आए हैं. मोटे तौर पर विवेक देबराय अपने लेख में मैजूदा संविधान को लेकर तीन प्रश्न उठाते हैं. पहला, संविधान औपनिवेशिक विरासत का हिस्सा है ? दूसरा, इसकी प्रस्तावना में दिए गए शब्द समाजवादी, धर्मनिरपेक्षता, लोकतांत्रिक न्याय, स्वतंत्रता, समानता जैसे शब्दों का अब कोई मतलब नहीं रह गया ? तीसरा, यह संविधान पुराना हो चुका है ?
जब वह कहते हैं कि संविधान औपनिवेशिक विरासत का हिस्सा है, तो यह कहते हुए पहले तो वह देश के संविधान निर्माताओं की बौद्धिकता पर प्रश्नचिन्ह खड़ा करते हैं. इस संबंध में डॉक्टर अंबेडकर ने कहा था, ज्ञान पर किसी का एकाधिकार नहीं हो सकता है, व्यक्ति जो ज्ञान इस धरती पर प्राप्त करता है वह यहीं के अनुभव के आधार पर प्राप्त करता है. इसलिए मानव हित में अच्छे विचारों को कहीं से भी लिया जाना चाहिए इसमें कोई बुराई नही हैं. दूसरी ओर बुरे विचार अपने अंदर भी हैं तो उन्हें त्यागने के लिए सदैव तत्पर रहना चाहिए. उनका कहना था कि आधुनिक संविधानों में ब्रिटेन का संविधान सर्वाधिक पुराना संविधान है. जिसे बनने के पीछे 800 साल का पुराना अनुभव है. हमें सीमित अवधि में अपना संविधान बनाना है. हम अपने मूल रूप से विकसित संविधान के लिए इतने लंबे समय का इंतजार नहीं कर सकते.
देबराय के अनुसार औपनिवेशिक काल की हर विरासत बुरी है तो हमारी सड़कें, रेल, एयरपोर्ट, बंदरगाह, दूरसंचार प्रणाली, हमारी विधायिका, कार्यपालिका, न्यायपालिका,शिक्षण संस्थान,चिकित्सा,इंजीनियरिंग, अर्थव्यवस्था,प्रबंधन, शैक्षिक व्यवस्था, पुलिस, सैनिक, अर्धसैनिक बलों की स्थापना, उनका ढांचा, उनका निर्माण, हमारा खानपान, पहनावा, रहन-सहन, यहां तक की स्वयं विवेक देबराय की अर्थव्यवस्था का ज्ञान, उनकी डिग्रियां, उनका पहनावा आदि भी औपनिवेशिक विरासत का ही हिस्सा हैं. वह कहते हैं संविधान का बड़ा भाग 1935 के भारत शासन अधिनियम का हिस्सा हैं. जबकि इस अधिनियम के माध्यम से ही सैकड़ों राजाओं के साम्राज्य में बंटा हुआ हमारा देश वर्तमान आकार ले पाया है.आधुनिक भारत की नींव रखने वाले हमारे नेताओं की शिक्षा भी औपनिवेशिक विरासत की देन है. इतिहास की इस विरासत को आप मिटाना भी चाहते हैं तब भी नहीं मिटा सकते हैं. यह आप भी जानते हैं. लेकिन इसके पीछे आपकी नीयत क्या है यह सभी जानते हैं.
वह दूसरा प्रश्न संविधान की प्रस्ताव में दिए गए शब्दों को लेकर उठाते हैं जिसे संविधान की आत्मा कहा जाता है. प्रस्तावना में दिए गए समाजवाद का आशय बताया गया है कि इसका आशय अमीरों की जेब खाली कर गरीबों की जेब भरने से नहीं, बल्कि भारतीय समाजवाद का आशय उत्पादन के संसाधनों का सामान वितरण, व राज्य के उत्पादन में समान हिस्सेदारी से है. धर्मनिरपेक्षता का आशय राज्य द्वारा सरकारी धन का उपयोग किसी धर्म विशेष के संरक्षण व प्रगति के लिए ना करते हुए, सभी धर्मों के प्रति समान दृष्टिकोण और संरक्षण से है. लोकतांत्रिक न्याय का आशय सामाजिक, आर्थिक, राजनीतिक न्याय अर्थात सामाजिक न्याय से है.जिसके अनुसार प्रत्येक व्यक्ति के पास अपने जीवन यापन के लिए न्यूनतम साधन उपलब्ध होने चाहिए. समानता का आशय सभी लोगों को जीवन में प्रगति के समान अवसरों से है. अब इन शब्दों से किसी को क्या आपत्ति हो सकती हैं. जबकि सच्चाई यह है कि संविधान लागू होने के 73 वर्षों के बाद भी प्रस्तावना में दिए गए इन लक्ष्यों को हम आज भी प्राप्त नहीं कर पाए हैं. देश के एक फ़ीसदी अमीरों के पास देश की संपत्ति का चालीस फ़ीसदी हिस्सा है. जबकि सबसे गरीब 50 फ़ीसदी लोगों के पास मात्र तीन फ़ीसदी हिस्सा है. सिन्हो कमिश्नर 2010 के अनुसार भारत में 31.7 करोड़ लोग गरीबी नीचे रेखा के नीचे जीवन यापन कर रहे हैं. अर्थशास्त्रियों के अनुसार वर्तमान में इसमें और भी गिरावाट बताई जा रही है. यूएनडीपी रिपोर्ट 2022 के अनुसार मानव विकास सूचकांक में 191 देशों की सूची में भारत 132 में पायदान पर है जो एक बुरी स्थिति है. कोई भी देश इतनी भयंकर असमानता, मानव विकास की लचर स्थिति व गरीबों की इतनी बढी आबादी को लेकर कभी भी आगे नहीं बढ़ सकता है. जब संवैधानिक प्रावधानों के बाद भी हम इन लक्ष्यों को प्राप्त नहीं कर पाए हैं तो संविधान से इन प्रावधानों को हटाने के बाद इस क्षेत्र में प्रगति कैसे कर पाएंगे ?
संविधान बदलने को लेकर वह अपना तीसरा प्रश्न यह कह कर खड़ा करते हैं कि यह संविधान पुराना हो चुका है एक लिखित संविधान का जीवनकाल केवल 17 साल होता है. जबकि सच्चाई यह है कि अमेरिका द्वारा 1787 में लिखा गया दुनिया का सबसे पुराना लिखित संविधान आज 235 सालों से 28 संशोधन के साथ सफलतापूर्वक चला आ रहा है. ब्रिटेन के संविधान की शुरुआत 1215 इस्वी के मैग्ना कार्टा के साथ मानी जाती है. तब से समय-समय पर ब्रिटिश संसद द्वारा बनाये गये कानूनों के साथ यह आज भी जारी है. ऐसे ही जापान का संविधान 1947 से, चीन का वर्तमान संविधान 1982 से, फ्रांस का संविधान 1958 से, जर्मनी का 1949 से इतने साल पुराने होने के बाद भी आज भी चले आ रहे हैं.यह पुराने नही हुए तो 1950 में लागू हुआ हमारा संविधान कैसे पुराना हो गया ? विवेक देबराय को एक तरफ मात्र 73 साल के संविधान को पुराना लगता है. दूसरी ओर हजारों वर्ष पूर्व लिखे गए वेद, पुराण, गीता, रामायण, मनुस्मृति आदि ग्रंथ उन्हें व उनकी विचारधारा के लोगों को आज भी प्रासंगिक लगते हैं. यह इन्ही ग्रंथों के दर्शन पर आधारित संविधान बनाने की बात कहते हैं.
जबकि सच्चाई यह है कि भारत अपने 2000 वर्षों के इतिहास में इतना टिकाऊ मजबूत कभी नहीं रहा जितना संविधान लागू होने के बाद वर्तमान में है.इसके साथ ही यह आज भी सफलतापूर्वक कार्य कर रहा है. भारत की पहचान देश दुनिया में सबसे बढ़े व सफलतम लोकत्रंत के रूप में हैं. इसका पूरा श्रेय हमारे संविधान व उसके निर्माताओं को जाता हैं.आज भी यह संविधान इस देश के लोगों की अपेक्षाओं व आकांक्षाओं को पूरा करने में सक्षम है तो इसके बाद भी इसे औपनिवेशिक व पुराना कहते हुए नया संविधान बनाने की बात क्यों उठ रही है. इन सब बातों से प्रतीत होता है कि देश में ख़ास विचारधारा के लोग वर्तमान संविधान को अपनी विचारधार की अपेक्षाओं व आकांक्षाओं के अनुरूप नहीं पाते हैं. देश के संविधान निर्माता दूरदर्शी थे. वह इस बात से वाकिफ थे कि किसी एक निश्चित समय में बनाया हुआ संविधान भावी लोगों की आवश्यकताओं, अपेक्षाओं व परिस्थितियों के अनुरूप नहीं हो सकता है. इसलिए उसे लचीला होना चाहिए. जिससे कि उसकी जीवटता बनी रहे. इसके कुछ प्रावधानों में समसामयिक परिस्थितियों के अनुसार परिवर्तन किया जा सके. जिसके आधार पर हमारे संविधान में 105 संशोधन हो चुके हैं. लेकिन लचीलेपन के साथ ही इस बात से भी वाकिफ थे कि इसका बुनियादी ढांचा भी बना रहे. जबकि सच्चाई यह है कि विवेक देबरॉय जैसे लोग इसके मूल ढांचे को ही बदलना चाहते हैं. संविधान सभा में डॉक्टर अंबेडकर द्वारा कहा गया था कि यदि देश की भावी पीढ़ी को यह लगने लगे कि संविधान उनकी अपेक्षाओं व आवश्यकताओं के अनुरूप नहीं रह गया है, तो वह संविधान में दिए गए प्रावधानों के अनुसार विशेष बहुमत जुटाते हुए संविधान को बदल सकते हैं. यदि आपको ऐसा बहुमत प्राप्त नहीं होता है तो यह माना जाएगा की संविधान को बदलने की आपकी राय निजी राय है. लेकिन समय-समय पर इस प्रकार के लोगों के बयानों के बाद देश भर में बढ़े स्तर पर लोगों की प्रतिक्रिया, देश विभिन्न राजनीतिक दलों, विभिन्न प्रकार के संगठनों आदि की प्रतिक्रिया को देखकर लगता है कि संविधान बदलना कोई आसान काम नहीं है. इन सब बातों को देखते हुए भी ऐसे प्रश्न खड़ा करते हुए समय-समय पर संविधान बदलने को लेकर देशभर में एक विमर्श पैदा करते हुए जनमत तैयार करने का प्रयास किया जा रहा है.जो वर्तमान परिस्थितियों में सफल होता प्रतीत नहीं होता है.इसके बाद भी संविधान समर्थकों को सचेत रहना चाहिए.
संजय कुमार टम्टा
प्रदेश अध्यक्ष, एससी-एसटी शिक्षक एसोसिएशन, उत्तराखंड