कोटद्वार गढ़वाल भारत में हुए जनगणना के इतिहास को देखने पर पता चलता है कि पहली अधिकृत जनगणना वर्ष 1881में लार्ड रिपन के समय कराई गई थी एवं जातिय आधार पर जनगणना आजादी से पूर्व वर्ष 1931 में आखिरी बार भी ब्रिटिश हुकूमत के समय 94 वर्ष पूर्व हुई थी, उसके बाद से देश में वर्तमान तक जातिय जनगणना के आंकड़े कभी देश के सामने प्रस्तुत ही नहीं किए गए। 15 अगस्त 1947 को देश स्वतंत्र हुआ एवं 26 जनवरी 1950 में स्वतंत्र भारत का संविधान लागू हुआ, एवं स्वतंत्र भारत के संविधान निर्माण का दायित्व दुनियां के महान विधिवेत्ता बाबा साहब डॉ भीमराव अंबेडकर को मिला। डॉक्टर अंबेडकर भारत में चली आ रही हजारों वर्षों की सभी विषमताओं की भलीभांति जानकारी रखते थे, उन्हें पता था कि देश के करोड़ों लोगों को स्वतंत्रता एवं लोकतंत्र का लाभ तब तक नहीं मिल सकता जब तक उन्हें भारत के संविधान में विशेष अधिकार न प्रदान किए जाएं, क्योंकि ऐसे करोड़ों लोगों को हजारों वर्षों से भारतीय समाज व्यवस्था में सामाजिक, आर्थिक, शैक्षिक रूप से उन्हें उनके मानवीय अधिकारों से अमानवीय परंपराओं के सहारे वंचित रखा गया था। देश की आजादी एवं देश का संविधान लागू होने के बाद भी समाज के बहुसंख्यक वंचित वर्गों की सामाजिक, आर्थिक, शैक्षिक स्थितियों में कोई क्रांतिकारी परिवर्तन नहीं हो पाए, अनुसूचित जाति, जनजाति एवं अन्य पिछड़े वर्गों को आरक्षण के माध्यम से कुछ राहत भले मिली हो लेकिन वो ऊंट के मुँह में जीरा कहावत को चरितार्थ करती है। सामाजिक न्याय के आंदोलनों में एक नारा प्रमुखता से लगाया जाता रहा है कि जिसकी जितनी संख्या भारी उसकी उतनी हिस्सेदारी लेकिन सवाल वहीं पर सवाल बनकर रह जाता है कि इन वर्गों की उचित संख्या कैसे पता चले जो उन्हें उनकी हिस्सेदारी मिल सके, क्योंकि 1931 के बाद जातिय जनगणना के आंकड़े जनता के सामने प्रस्तुत ही नहीं किए गए, जिस वजह से मुठ्ठी भर लोगों का देश के तमाम संसाधनों पर प्रत्यक्ष- अप्रत्यक्ष एकाधिकार पूर्व से ही बना हुआ है और आरक्षण के बाद भी आरक्षित वर्ग के करोड़ों लोग आज भी मानवीय अधिकारों से महरूम हैं। देश की आबादी के सबसे बड़े बहुसंख्यक ओबीसी, अनुसूचित जाति , जनजाति, आदिवासी वर्ग की शासन- प्रशासन में भागीदारी उनकी जनसंख्या के अनुपात में नाममात्र की है, और यही वजह है कि देश आजादी के 78 वर्षों बाद भी विकसित राष्ट्रों की फेहरिस्त से गायब है, आश्चर्य तो तब होता है जब देश के प्रधानमंत्री बड़े गर्व से सीना ठोक के कहते हैं कि हमारी सरकार 80 करोड़ लोगों को फ्री का राशन दे रही है जबकि ये गर्व की करने की बजाय शर्मिंदगी का विषय है, सरकार का ऐसा कहना प्रमाणित करता है कि देश की 80 करोड़ की आबादी आज भी गरीबी मुफलिसी में अपना जीवन यापन सरकारों के रहमोकरम पर कर रही हैं, अगर अब तक इन 80 करोड़ लोगों को देश के आर्थिक संसाधनों पर उनके हक अधिकार उचित ढंग से दिए गए होते तो उन्हें फ्री की राशन देने की आवश्यकता नहीं होती और वे आत्मनिर्भर हो गए होते। वर्तमान केंद्र सरकार न चाहते हुए भी जातिय जनगणना की घोषणा कर चुकी है, अब सरकार को चाहिए कि वे इस दिशा में आगे बढ़े और जातिय जनगणना के बहुप्रतीक्षित कार्य को पूरा करे। अब देश के संपूर्ण अनुसूचित जाति, जनजाति, ओबीसी, आदिवासी वर्गों को चाहिए कि वे जनगणना के समय जब उनके घरों में जनगणना करने वाले सरकारी कर्मचारी आयेंगे तो वे जाति के कॉलम में अपने सही जाति का विवरण दर्ज करवाएं, क्योंकि भविष्य में आपको व आपके बच्चों को उनके अधिकार उनकी जनसंख्या के अनुपात में मिलेंगे, और जब देश की जाति जनगणना का कार्य पूर्ण हो जाय तब सभी वंचित जातियों को शासन- प्रशासन एवं देश के सभी आर्थिक संसाधनों पर अपनी हिस्सेदारी अपनी संख्या के अनुपात में हासिल करने के लिए लामबंद होने के लिए भी तैयार रहना चाहिए, क्योंकि जिसकी जितनी संख्या भारी उसकी उतनी हिस्सेदारी। अंत में प्रस्तावित जाति जनगणना की समस्त देश वासियों को अग्रिम शुभकामनाएं।
विकास कुमार आर्य
ब्यूरो प्रमुख
(गढ़वाल मंडल)
वंचित स्वर साप्ताहिक समाचार पत्र

