
उत्तराखंड राज्य में विगत कुछ वर्षों में जातिगत हत्याओं, शोषण, उत्पीड़न की घटनाओं में लगातार बढ़ोतरी होती जा रही है घटनाओं में बढ़ोतरी के साथ-साथ इन घटनाओं में उत्पीड़को, शोषको व हत्यारों के विरुद्ध कार्यवाही में उदासीनता भी लगातार बढ़ती जा रही है । जिस हत्या या उत्पीड़न की घटना के विरुद्ध इन वर्गों के सामाजिक संगठन थोड़ा-बहुत प्रदर्शन या आक्रोश व्यक्त कर पाते हैं उनमें प्रशासन थोड़ा बहुत फर्ज अदायगी की रस्म अदा कर देता है जिन घटनाओं में यदि पीड़ित पक्ष के पक्ष में दबाव नहीं बन पाता उनमें तो कुछ हो ही नहीं पाता या कहें कि पुलिस प्रशासन द्वारा ऐसे मामलों को रफा-दफा कर ठंडे बस्ते में डाल दिया जाता है।
कुछ मामलों में यदि कुछ संगठन दबाव बना पाए या पीड़ित पक्ष गुहार लगा पाया या दबाव बना पाया तो ऐसे मामलों में थोड़ा बहुत गिरफ्तारी या मुकदमा दर्ज करने की औपचारिकता तो निभाई जाती है लेकिन इन वर्गों का शासन प्रशासन में प्रभुत्व ना हो पाने के कारण और आतंकियों की पकड़ शासन प्रशासन तक मजबूत होने के कारण मुकदमे या केस को ऐसा लचर या कमजोर बनाया जाता है कि जिससे उत्पीड़को को न्यायालय से बचने के कई रास्ते मिल जाते हैं।
अपनी पहुंच या प्रभाव का ऐसी घटनाओं को अंजाम देने वाले जातीय आतंकियों को भलीभांति ज्ञान होता है जिसके बल पर वह खुलेआम समाज के शोषित पीड़ित वंचित तबकों को डराते हैं धमकाते हैं लूटपाट करते हैं उन्हें मार देते हैं उनके साथ दुराचार की घटनाओं को अंजाम देते हैं उन्हें अपमानित करते रहते हैं क्योंकि उन्हें मालूम होता है कि पहले तो पीड़ित तबका उनके विरुद्ध शिकायत का साहस नहीं कर पाएगा यदि साहस कर भी लिया तो वह अपनी पकड़ पहचान प्रभाव व पैसे के दम पर मामले को रफा-दफा करवा लेंगे ।इन हालातों में इन वर्गों के लोग कितने स्वाभिमान से जी पा रहे होंगे यह अंदाजा लगाना कठिन नहीं होना चाहिए जबकि भारत का संविधान देश के प्रत्येक नागरिक की गरिमा व सम्मान की सुरक्षा का दायित्व राज्य व सरकार को सौंपता है ,अर्थात यह राज्य का दायित्व है कि वह प्रत्येक नागरिक को उसके मूलभूत नैसर्गिक अधिकारों को प्रदान करने का दायित्व निभाए क्योंकि इसी कारण या इसी अपेक्षा में राज्य का नागरिक राज्य की अधीनता स्वीकार करता है।
किंतु इस देश में यहां के मेहनतकश मूल निवासियों पर चंद स्वार्थी तत्वों ने जबरन जाति वर्ण व्यवस्था थोप कर उनके नैसर्गिक अधिकारों को छीन कर सदियों से उनके ऊपर जुल्म ढाए हैं हजारों वर्षों से इस अंधकार युग के बाद विगत 72 वर्षों से भारतीय संविधान के बदौलत इन मेहनतकश मूल निवासियों के जीवन में एक उम्मीद की किरण जगी थी किंतु शासन प्रशासन पर कब्जा जमाए हुए शोषक व अत्याचारी समूहों के षड्यंत्र व साजिशों के कारण तथा इन वर्गों के राजनीतिक क्षेत्र में आगे बढ़े लोगों की पद लोलुपता व व्यक्तिगत स्वार्थों के हावी होने के कारण आज संवैधानिक अधिकार भी निष्प्रभावी नजर आ रहे हैं।
ऐसी परिस्थितियों में जिस वर्ग को अपनी हत्याओं को भी हत्या मानने के लिए शासन प्रशासन से गुहार लगानी पड़ती हो, अपने कई दिन महीने लगाने पड़ते हैं अपना रोजगार काम धंधा छोड़कर, भूख हड़ताल करनी पड़ती हो, आत्मदाह की चेतावनी देनी पड़ती हो, आमरण अनशन करना पड़ता हो कि उनकी हत्या को हत्या व उत्पीड़न को उत्पीड़न माना जाए तो इन हालातों में इन वर्गों के जीवन के अन्य क्षेत्रों में प्रगति की उम्मीद कैसे की जा सकती है जो आज भी अपने रोजगार धंधे की छोटी मोटी दुकानें नहीं चला सकते, शासन-प्रशासन में अपने पदों पर स्वाभिमान पूर्वक कार्य नहीं कर सकते, अपने पदों पर हर पल अपने अपमान अपने उत्पीड़न व शोषणके साए में जीते हो स्वाभिमान से जीने की सोचने पर मार दिए जाते हैं क्या उन्हें स्वतंत्र देश के पर तंत्र नागरिक नहीं कहा जाना चाहिए।
डॉ प्रमोद कुमार अधिवक्ता उच्च न्यायालय नैनीताल,संपादक वंचित स्वर