अल्मोड़ा। सोबन सिंह जीना परिसर अल्मोड़ा के इतिहास विभाग, कुमाउनी भाषा विभाग और कुर्मांचल अखबार के संयुक्त तत्वावधान में अंतराष्ट्रीय मातृभाषा दिवस के अवसर पर एक गोष्ठी आयोजित हुई। इस गोष्ठी के मुख्य अतिथि के रूप में विश्वविद्यालय के माननीय कुलपति प्रो जगत सिंह बिष्ट, कार्यक्रम के अध्यक्ष रूप में हिंदी विभाग के अध्यक्ष एवं कुमाउनी भाषा विभाग की संयोजक डॉ प्रीति आर्या, विशिष्ट अतिथि रूप में अधिष्ठाता छात्र कल्याण प्रो इला साह, कुलानुशासक डॉ मुकेश सामंत, वक्ता रूप में कुर्मांचल अखबार के संपादक डॉ चन्द्र प्रकाश फूलोरिया उपस्थित रहे।
संचालन करते हुए डॉ गोकुल देवपा ने कार्यक्रम की रूपरेखा प्रस्तुत की।
अतिथियों का अभिनंदन करते हुए परिसर की अधिष्ठाता छात्र कल्याण प्रो इला साह ने अतिथियों का स्वागत किया। उन्होंने कहा कुमाउनी भाषा के लिए युवा को जागरूक करने की आवश्यकता है। मातृभाषा के संरक्षण के लिए युवाओं के कंधे पर भारी जिम्मेदारी है। युवा मातृ भाषा कुमाउनी को आत्म सम्मान से जोड़ें।
डॉ. मुकेश सामंत ने कहा कि बहुभाषिक होना आज के समय की जरूरत है। अपनी क्षेत्रीय भाषा-बोली, अपनी मातृभाषा में व्यवहार करना चाहिए। अपनी मातृभाषा को संरक्षित करने का प्रयास करें। तकनीकों का सहारा लेकर हम विविध भाषाओं का ज्ञान लें।
मुख्य वक्ता के रूप में डॉ चन्द्र प्रकाश फूलोरिया ने मातृभाषा दिवस के अवसर पर कहा कि भौगोलिक स्थितियां भाषा में विविधता उत्पन्न करती है। दूधबोली कुमाउनी हमारी पहचान है। यहां कुमाउनी की कई उपबोलियाँ हैं। जिनकी वाक्य रचना में फर्क दृष्टिगोचर होता है। असकोटी, खसपार्जिया, काली कुमय्या, दनपुरिया, पाली पछाऊं आदि उपबोलियाँ हैं। दुधबोलि कुमाउनी में आज भी परंपरागत ज्ञान समाहित है। मातृभाषा दिवस पर अपनी मातृभाषा कुमाउनी बोली का संरक्षण करने के लिए चिंतन करने की आवश्यकता है। स्कूली शिक्षा में कुमाउनी को लागू किया जाए। सरकार के समक्ष एकमंच पर आकर दूधबोली कुमाउनी और गढ़वाली को संरक्षण प्रदान करने के लिए आने की आवश्यकता है। यूनेस्को द्वारा भाषा और बोलियों के संरक्षण के लिए प्रयास हो रहे हैं।
मुख्य अतिथि के रूप में कुलपति प्रो जगत सिंह बिष्ट ने सभी को मातृभाषा दिवस के अवसर पर अपनी शुभकामनाएं दी। उन्होंने कहा कि हिंदी हमारी मातृभाषा है। उसके उद्भव एवं विकास का क्रम काफी लंबा समय रहा है। इस राज्य में गढ़वाली और कुमाउनी दो मातृ भाषाएं हैं। इस कुमाउनी क्षेत्र में कुमाउनी की अलग अलग उपबोलियाँ बोली जाती हैं। जो क्षेत्र की संस्कृति को सामने लाती हैं। कुमाउनी में परंपरागत ज्ञान समाहित है। कुमाउनी भाषा में हम अपने जीवों की उत्त्पत्ति, वनस्पतियों, पर्यावरण के बारे में गहरा ज्ञान पाते हैं। उन्होंने मातृभाषा को देशज ज्ञान का मुख्य स्रोत बताया। उन्होंने कहा कि मृणाल पांडे, मनोहर श्याम आदि रचनाकारों के साहित्य में कुमाउनी शब्दों का प्रयोग हुआ है। कुलपति प्रो बिष्ट ने कहा कि दूधबोली को सीखें। आंख, कान खोलकर अपने आस-पास की चीजों को आत्मसात करें। उन्होंने कहा कि जो अपनी मातृभाषाओं को सीखने का यत्न नहीं करते उनका सभी ज्ञान निर्रथक है।
कार्यक्रम की अध्यक्षता करते हुए डॉ. प्रीति आर्या ने कहा कि कुमाउनी मेरी मातृभाषा है। सभी लोग कुमाउनी में बोलें, लिखें और कुमाउनी भाषा के उन्नयन के लिए कार्य करें। आज माता पिता अपने बच्चों को मातृभाषाओं में व्यवहार करना नहीं सिखाते। जो चिंतनीय। हमें कुमाउनी को बोलने में जरा भी हिचक नहीं होनी चाहिए।स्नातकोत्तर स्तर पर कुमाउनी भाषा का पाठ्यक्रम लागू करने की बात कही।
इस अवसर पर डॉ आशा शैली एवं महेंद्र ठकुराठी द्वारा लिखे गए कहानी संकलन ‘कौं न मनक काथ-क्वीड’ का विमोचन किया गया।
कार्यक्रम का संचालन डॉ गोकुल देवपा ने किया।
गोष्ठी में डॉ गीता खोलिया, डॉ ममता पंत,डॉ संदीप कुमार, डॉ राम चन्द्र मौर्य, डॉ तेजपाल सिंह, डॉ माया गोला, डॉ श्वेता चनियाल, डॉ आशा शैली, वैयक्तिक सहायक विपिन जोशी, जयवीर सिंह नेगी, डॉ लता आर्य, डॉ अरविंद यादव, डॉ पूरन जोशी, डॉ मनीष त्रिपाठी, डॉ प्रतिमा, डॉ प्रेमा बिष्ट, डॉ लक्ष्मी वर्मा, डॉ शालिनी पाठक, डॉ रवि कुमार, डॉ विजेता सत्याल,डॉ आरती परिहार, डॉ ज्योति किरन, डॉ आस्था नेगी, प्रेमा भट्ट, डॉ योगेश मैनाली, श्री महेंद्र ठकुराठी, लक्ष्मण वृजमुख आदि शिक्षक, शोधार्थी, कर्मचारी एवं छात्र शामिल हुए।