
जन अपेक्षाओं के साथ पहाड़ी राज्य उत्तराखंड की स्थापना की गई थी. उन अपेक्षाओं पर हमारा पूरा सिस्टम फेल हो चुका है. उत्तर प्रदेश के समय में भी पर्वतीय क्षेत्रों से मैदानी क्षेत्रों की ओर इतनी तेजी से पलायन नहीं हुआ था जितना कि उत्तराखंड बनने के बाद. इस प्रकार की नीतियां बनाई जा रही है उसे फ्लाइंग की हो गति और तेज होना स्वाभाविक है. पर्वतीय जिलों से नौकरी पेशा आर्थिक रूप से संपन्न व्यक्ति लगातार मैदानी जिलों की ओर पलायन करता जा रहा है. इससे न केवल व्यक्ति का पलायन हो रहा है बल्कि पर्वतीय क्षेत्रों से बौद्धिक और आर्थिक पलायन भी हो रहा है. किसी शहर में नौकरी पेशा व्यक्ति रहता है तो रोजगार भी जनरेट करता है. लेकिन पर्वतीय क्षेत्रों के लोगों का पूरा पैसा मैदान मैदानी जिलों में ही खर्च हो रहा है. बंदर और जंगली जानवरों के कारण पहाड़ों की खेती बर्बाद हो रही है. इस बर्बादी के कारण लोगों ने खेती करना भी छोड़ दिया है. पर्वतीय क्षेत्रों के गांव के अधिकांश गांव की तरह खेत भी बंजर हो चुके हैं. नौकरीपेशा व्यक्ति की तरह यहां के जनप्रतिनिधि मैदानी क्षेत्रों को ही पलायन कर चुके हैं. वह भी केवल अपनी चुनावी साख बचाने के लिए और चुनाव के समय पहाड़ी पहाड़ी जिलों में आते हैं.
जब जनप्रतिनिधि पहाड़ों में रहना नहीं चाहते तो पहाड़ों के लिए योजना कौन बनाएगा. प्रदेश सरकार का कुल कुल निवेश का 70 फ़ीसदी निवेश 3 मैदानी जिलों में ही हो रहा है. ऐसे में यह भी दिखाई दे रहा है कि पर्वतीय क्षेत्रों में कितना निवेश हो रहा है.
पलायन का मुख्य कारण पर्वतीय क्षेत्रों में आधारभूत सुविधाओं का अभाव है. जिसे बढ़ाने पर कोई विशेष ध्यान नहीं दिया जा रहा है. आज भी पर्वतीय जिलों में अच्छे स्कूल उच्च शिक्षा संस्थान चिकित्सीय सुविधाएं विशेषज्ञ डॉक्टरों का अभाव सहित अच्छी सड़कें बिजली पानी की निर्बाध रूप से आपूर्ति नहीं हो पा रही है. इसके साथ देखा देखी एवं आधुनिकता भी पलायन का मुख्य कारण है.
प्रदेश में इन पर्वती जिलों में कोई भी अधिकारी कर्मचारी डॉक्टर शिक्षक कोई भी रहना नहीं चाहता है. ऐसे में पोस्टिंग यहां मिलने पर मन लगाकर कार्य भी नहीं कर पाता. अक्सर शनिवार व अवकाश के पहले दिनों में पर्वती जिलों के कार्यालयों में आधे दिन से ही कर्मचारियों का पलायन शुरू हो जाता है. और सोमवार के आधे दिन तक यह अपने कार्यालयों में पहुंच पाते हैं. और लगातार मैदानी जिलों में पोस्टिंग के लिए संघर्षरत रहते हैं. ऐसे मनोदशा में उनसे कैसे अच्छे कार्य के अपेक्षा की जा सकती है. पहाड़ों में पढ़ने की युवा पीढ़ी तो पहाड़ों से नीचे उतरते ही पहाड़ों की और आना ही नहीं चाहती. भौतिकवाद की चकाचौंध में युवाओं व लोगों का अपने घर गांव और शहरों से कोई लगाव नहीं रह गया. बस आपको बनी बनाई व्यवस्था चाहिए. पहाड़ों में रहने लायक व्यवस्था बनाने का हौसला बहुत कम लोगों के अंदर है. जिनके अंदर है वह काम भी कर रहे हैं. यह स्थिति भी सुखद है लेकिन ऐसे लोगों की संख्या बहुत कम है.
सरकार द्वारा ऐसी कोई नीतियां या योजना धरातल पर दिखाई नहीं देती है जो नौकरी पेशा व आर्थिक रूप से साधन संपन्न व्यक्ति को पहाड़ों में रहने के लिए प्रेरित करती हो. हालात ही रही तो पहाड़ों में लगभग वही लोग रह जाएंगे जो मैदानों से तो मैं जाने मैं अक्षम है और वह भी बेमन से ही पहाड़ों में रहेंगे.
पहाड़ी क्षेत्र से मैदानी जिलों की ओर इस प्रकार से पलायन होता रहा. प्रदेश के सामाजिक ताने-बाने और जनसांख्यिकी के लिए अच्छा संकेत नहीं होगा. इसलिए सरकारों और हमारे जनप्रतिनिधियों को भी इस पलायन को रोकने के लिए गंभीरता से सोचना होगा. मैदानों में बैठकर पहाड़ों के लिए पलायन रोकने वाली नीतियां बनाने वाले अधिकारियों से पीछा छुड़ाकर पर्वतीय क्षेत्रों के विकास में रुचि लेने वाले और उसी क्षेत्र में रहने वाले लोगों को पलायन आयोग से जोड़ना चाहिए.,
संजय कुमार टम्टा – अध्यक्ष एस सी एस टी शिक्षक एशोसिएशन उत्तराखण्ड