
भारत में समता, स्वतंत्रता, बंधुत्व व न्याय की स्थापना की लड़ाई या संघर्ष कोई नया नहीं है, यह संघर्ष उतना ही पुराना है जितना कि भारत में गैर बराबरी अन्याय और शोषण की व्यवस्था की स्थापना का, यह कैसे हुआ किसने किया यह एक लंबी चर्चा अध्ययन व शोध तथा इस पर अब तक हुए शोधों के अध्ययन का विषय है लेकिन एक बात स्पष्ट है कि जब से चंद स्वहितकारी लोगों ने इस देश में मानव मानव में विभेद पैदा पैदा करने वाली इस कुव्यवस्था का निर्माण किया और अपनी कुनीतियों के बल पर इन्हें संचालित और प्रचलित करने का काम किया तभी से असंख्य सुधारकों व शासकों ने इसके विरोध में अपने मत को व्यक्त किया और समानता व न्याय की व्यवस्था को स्थापित प्रचारित प्रसारित करने का प्रयत्न किया।
किंतु कोई भी सुधारक या शासन सत्ता चिरस्थाई नहीं होते समय के साथ-साथ सुधारकों का जीवन समाप्त होते ही उनके अनुयाई उनके दर्शन को कितनी ईमानदारी से आगे बढ़ाएंगे यह निश्चित नहीं होता है उसी प्रकार शासन सत्ताएँ भी कुछ समय पश्चात देर सवेर बदल जाती हैं और यदि उसके बाद आने वाली हुकूमत विपरीत विचारधारा की आई तो उतनी ही तेजी से पुराने दर्शन को ध्वस्त व नेस्तनाबूत करने में अपनी शक्ति व संसाधनों का उपयोग करती हैं यही अभी तक का भारत का विगत कुछ सदियों का इतिहास स्पष्ट रूप से दर्शाता भी है और किसी दौर में समूची मानव सभ्यता तथा विश्व को करुणा प्रेम और न्याय का संदेश देने वाली धरती में ही कालांतर में उस दर्शन व दर्शन के प्रतीकों को ही पूरी तरह ध्वस्त नेस्तनाबूत व जमींदोज कर दिया गया।
सैकड़ों वर्षो की तमाम उथल-पुथल के पश्चात तथा भारतीय इतिहास के अनेक दौर तथा करवटे लेने के बाद 73 वर्ष पूर्व भारत को एक सुव्यवस्थित संविधान मिला जिसके दम पर भारत के भावी शासन संचालन की कार्य योजना देश तथा देशवासियों को मिली, जिसकी बदौलत भारतीय इतिहास ने फिर एक नई करवट ली, इन 73 वर्षों में कई क्रांतिकारी परिवर्तन होने शुरू हो गए, सदियों से धन धरती और ज्ञान से प्रतिबंधित लोगों को भी धन धरती और ज्ञान प्राप्त होने लगा, जिम्मेदार विभागों तथा शासन प्रशासन में उनको भागीदारी मिलने लगी, जिसके फलस्वरूप इनमें से अधिकांश लोग तो अपने इस नए खुशहाल जीवन से संतुष्ट होकर धन और धरती ही संचित करने भर से ही संतुष्ट हो गए लेकिन कुछ लोगों ने धन और धरती की अपेक्षा ज्ञान को अधिक महत्व दिया और सदियों से दफन किए गए भारत के समृद्ध इतिहास को ज्ञान के सहारे परत दर परत जानना खोलना और विस्तारित, प्रचारित और प्रसारित करना आरंभ कर दिया ।
किंतु अभी भी वही दोनों संघर्ष जारी हैं जहां एक ओर उस समृद्ध इतिहास को पुनर्स्थापित करने के प्रयास हो रहे हैं वहीं दूसरी विचारधारा इस चेतना को फिर से बंद करने को आतुर है किंतु फिर भी अनेकों लोग व संगठन अपने कार्य को अंजाम देने में जुटे हुए हैं किंतु इस पक्ष का संघर्ष इस दौर में भी सुव्यवस्थित सुसंगठित व सुनियोजित कार्यप्रणाली युक्त नजर नहीं आता और ज्यादातर जनमानस कुछ ब्यक्तिवादी नेताओं को ही चिरस्थाई समझ बैठे हैं और ज्यादातर संगठन जो संगठन होने का दावा कर रहे हैं वह वास्तव में संगठन है कि नहीं वह कुछ व्यक्तियों के दिमाग से उपजे तथाकथित संगठन उन्हीं के साथ समाप्त हो जाने हैं या अन्य प्रलोभनों या धोखे के शिकार भी हो सकते हैं।
ऐसे में इस दौर में इस मानवतावावादी भारत के निर्माण के आंदोलन को एक सुव्यवस्थित लोकतांत्रिक संस्थान की आवश्यकता है जिसमें व्यक्तियों का समूह निर्णय लेता हो, जिसमें निर्णय लेने की शक्ति किसी एक हाथ में ना हो जिसमें निर्णय लेने वाले समूह भी स्थाई ना हों, उनका भी एक निश्चित समय पर पुनर्गठन की व्यवस्था हो ऐसे सुव्यवस्थित लोकतांत्रिक संस्थान के सहारे ही इस आंदोलन को बढ़ाया जा सकता है, इसके अंजाम तक पहुंचाया जा सकता है, और इसे निरंतरता और स्थायित्व प्रदान किया जा सकता है मानवतावादी भारत का निर्माण चाहने वाले प्रत्येक ईमानदार व्यक्ति को ऐसे संस्थान की तलाश करनी चाहिए और तलाश पूरी होने पर अपनी समस्त शारीरिक मानसिक और आर्थिक संसाधन और ऊर्जा उस संस्थान को मजबूत करने में लगा देना चाहिए यही मानवतावादी भारत के निर्माण के लिए हमारा सर्वोत्तम होगा।
एडवोकेट डा प्रमोद कुमार,संपादक “वंचित स्वर”