
इस समय देश तो कठिनाइयों और चुनौतियों के दौर से गुजर ही रहा है लेकिन उत्तराखंड के मूल निवासी मेहनतकश वर्गों के लोग जो वास्तव में उत्तराखंड के निर्माण के प्रत्येक छोटे से लेकर बड़े कार्य से जुड़े हैं आज दोहरी चुनौती के दौर से गुजर रहे हैं इनके लिए राष्ट्रीय स्तर पर निर्माण की जा रही चुनौतियों व संकट तो है ही साथ ही राज्य स्तर की चुनौतियां भी सामाजिक व भौगोलिक भिन्नता ओं के कारण कम नहीं है।
क्योंकि विकास की दृष्टि से पिछड़ जाने का तर्क देकर बनाए गए राज्य के निर्माण के 22 वर्षों में इन शोषित वंचित मेहनतकश मूलनिवासी समाज ने अपने लगभग सभी संवैधानिक संरक्षण के अधिकार यहां खो दिए हैं उदाहरणार्थ आउटसोर्सिंग व ठेकेदारी प्रथा चला कर इन्हें सरकारी सेवाओं से दूर रखने का पुख्ता इंतजाम अब तक की सरकारों ने कर दिया है, नौकरी हासिल करने के बाद उनकी पदोन्नति के दरवाजे भी बंद कर दिए गए हैं साथ ही साथ शैक्षणिक संस्थानों में प्रवेश प्रक्रिया व छात्रवृत्ति प्रक्रिया को भी इतना जटिल बना दिया गया है कि उसका होना ना होना एक समान हो गया है, राज्य गठन से अब तक सैकड़ों की संख्या में इनकी हत्या की जा चुकी हैं इनके जनप्रतिनिधियों को तक यहां कई बार मारपीट व अपमान की घटनाओं का सामना करना पड़ा है तथाकथित विकास के नाम पर इनकी जमीन जबरन छीनने व हड़पने का काम भी निर्बाध गति से जारी है बची खुची कसर इनके गांव गली मोहल्लों के निकट राज्य सरकार द्वारा शराब की दुकानें खोलकर इन्हें नशे द्वारा बर्बाद करने व इनके खून पसीने की कमाई को हड़प कर सरकार के राजस्व का बंदोबस्त किया जा रहा है।
इन वर्गों के इन हालातों या इस बर्बादी के लिए मुख्य रूप से दो कारक जिम्मेदार हैं पहला कारक जाति एवं वर्ण वादी व्यवस्था जिसका उत्तराखंड में वर्चस्व है और वह व्यवस्था इन वर्गों को सिर्फ और सिर्फ अपना दास और गुलाम बना कर रखना चाहती है जिससे यह केवल उन्हीं के लिए जिए और मरे, और उत्तराखंड बनने के बाद अब तक बारी-बारी से दो ऐसे दलों ने शासन किया है जिनमें यहां की वर्चस्ववादी जातियों का वर्चस्व है और वे अपनी वर्चस्ववादी व्यवस्था के अनुसार ही शासन प्रशासन का संचालन करती आ रही हैं, दूसरा और अत्यंत महत्वपूर्ण कारक यह वर्ग स्वयं है क्योंकि इनके साथ भेदभाव उत्पीड़न, अपमान व अमानवीय व्यवहार कोई नया नहीं है यह हजारों साल से चला आ रहा है और इसी गैर बराबरी व शोषण की अमानवीय व्यवस्था के विरुद्ध इन्हीं वर्गों में से अब तक कई महापुरुष अपना पूरा जीवन अपना घर परिवार लुटा चुके हैं कुर्बान कर चुके हैं और वह महापुरुष इन्हें कुछ मार्ग व नसीहतें भी देकर गए जिसके बल पर यह वर्ग अपने मानवीय अधिकारों को हासिल कर सकते हैं मान सम्मान स्वाभिमान का जीवन जी सकते हैं किंतु नाही राज्य बनने से पूर्व नहीं राज्य बनने के बाद इन वर्गों ने इन महापुरुषों के बताए मार्ग पर कोई ठोस सामूहिक,सुसंगठित प्रयास किया हो इसके बहुत ही कम उदाहरण देखने को मिलते हैं जिसका खामियाजा आज इन वर्गों को जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में भुगतना पड़ रहा है।
इन्हीं महापुरुषों में एक राय बहादुर मुंशी हरिप्रसाद टम्टा रहे जिन्होंने लगभग 98 वर्ष पूर्व अल्मोड़ा शहर के पास ऐतिहासिक शिल्पकार सम्मेलन कर इन्हें एकजुटता व अपने नैसर्गिक अधिकारों के लिए संघर्ष करने का संदेश दिया था अनेक जातियों उप जातियों में बांटे गए समाज को शिल्पकार जैसा सम्मान सूचक नाम दिया, इनकी गरीबी व बदहाली दूर करने को इन्हें हजारों एकड़ जमीन आवंटित करवाई, इनके शिक्षा की व्यवस्था सुनिश्चित करने के लिए अनेक विद्यालय खुलवाए, सेना में भर्ती के रास्ते खुलवाए, सामाजिक चेतना के प्रसार के लिए अखबार का प्रकाशन किया, सर्वाधिक महत्वपूर्ण अन्याय और शोषण को ना सहने और इसके विरुद्ध संघर्षरत रहने का संदेश दिया साथ ही इन्हें राष्ट्रीय स्तर पर डॉ अंबेडकर के मान सम्मान व स्वाभिमान के आंदोलन से जोड़ दिया।
किंतु आज भी 90 से 95% इन वर्गों को व इनकी नई पीढ़ियों को मुंशी हरिप्रसाद टम्टा जी व उनके संघर्ष की जानकारी तक नहीं है उनके बताए मार्ग पर चलना तो दूर की बात है इतने बड़े क्रांतिकारी आंदोलनकारी महापुरुष जिन्होंने अपना जीवन इनके लिए अर्पित कर दिया उस महापुरुष को व उनके संघर्ष को की अनदेखी कर इस वर्ग का कल्याण हो भी कैसे सकता है?
एडवोकेट डा प्रमोद कुमार,संपादक “वंचित स्वर”